Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijayji Free Jain Library
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[१०८] दूर निकंदा ॥ ३॥ विविधपरे द्रव्य ते चींचां ।। सु. क्रित तणां तरु सर्वे सीचां ॥ तीरथ अवर वर अनेक बंद्या धरी तेणे सविवेक ॥४॥ अरथ अपूरव सरा। पछे आपणे नगरे पधारा ।। सापिये चडि आया राजा ॥ बहून मान दिये ते दिवाना ॥ ५ ॥ यर २ मंगल गावे वृधि ।। कुशल कल्याग तगोरे समृद्धि ॥ सामि बछल बहुला कीधां ।। पुन्य भंडार भरा ते प्रसिधां ॥ ६ ॥ रतन सरिखो ए छे रतन धर्म तणो करे ते जत्न ॥ चंद्र सुरज लगे नाम || जेणे राख्युं. ते अभिराम ॥ ७ ॥ तिरथ एह श्री गिरिनार ।। प्रगटी कीधो श्रावक रत्ने सार । थारी श्री नेमि.. जीनी मुर्ति ॥ आज लगे एहवि छे किर्ति ॥ ८ ॥ अथिर लक्ष्मी के एह ॥ पामि वय करतो ससने ।। कृपणपणु नवि ते आणे ॥ तेहनो जस जगमाहे जाणे ॥९॥ भरतादिक हुवा संघहो । भान नहि रिधि छे एहवि ॥ पाम्पा सारु द्रव्य शकिए वा ॥ तेहनी एम भावना पायो : १.. श्री शत्रुजय निरि सार । भरतनो प्रथम उद्धार। पांच पांडव लगे जोई । सो पण गिरनार होई ॥ ११ ॥
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