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सम्यक्त्वमूल द्वादश व्रत अंगीकार कर पूर्ण श्रावक वने उस दिनसे निरंतर त्रिकाल जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने लगे। परम गुरु श्री हेमचंद्राचार्यकी विशेष रुपसे उपासवा करने लगे । और परमात्मा महावीर प्रणीत अहिंसा स्वरुप जैन-धर्मका आराधन करने लगे । आप बडे दयालु थे किसी भी जी. वकों कोई प्रकारका कष्ट नहीं देते थे । पूरे सत्यवा. दी थे, कभी भी असत्य भाषण नहीं करते थे। निर्वि. कार दृष्टिवाले थे, निजकी राणीयोंके सिवाय संसार मात्रका स्त्रीसमूह आपको माता, भगिनी और पुत्री तुल्य था । महाराणी भोपल देवीकी मृत्यु के बाद आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया था, राज्य लोभसे सर्वथा पराङ्मुखथे । मधपान, तथा मांस
और अभक्ष्य पदार्थोका भक्षण कभी नहीं करते थे, दीन दुःखीयोंका और अर्थी जनोंको निरंतर अगणित द्रव्य दान करते थे । गरीब और असमर्थ श्रावकांके निर्वाह के लिए हरसाल लाखों रुपये राज्य के खजानेमसे देतेथे । आपने लाखों रुपयोंको व्यय कर जैनशास्त्रोका उद्धार कराया और अनेक
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