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[७३] इसका समाधान यह है कि जैसे आज हिन्दुस्थानमे अनेक दानशील मनुष्य हैं बल्कि गिनती कीजाय तो हिन्दुस्थानमे प्रति वर्ष साठक्रोड रुपयेका दान होता है उनमे कितनेक उदार महाशय तो किसीकीभी आंखोके सामने दान नही करते और करके कभी कहतेभी नही. उनका कथन और मं. तव्य है कि___ " यज्ञः क्षरति असत्येन, तपः क्षरति मायया - आयुः पूज्याऽपवादेन. दानं तु परि कीर्तनात् ॥१॥
अर्थ-असत्य बोलनेसे यज्ञका फल नष्ठ होजाता है, याया करनेसे अर्थात् दंभ-कपट-परवंचना करनेसे तपका फल हारा जाता है अपने पूज्य उप. कारी पुरुषोंका अपवाद करनेसे अर्थात् उनको निन्दा करनेसे जिन्दगी घटती है और-दूसरे के पास प्रकाश करनेसे दूसरेके सामने अपनी बडाई करनेसे दानका फल अल्प होजाता है. यह समझकर कितनेक भाग्यवान क्रोडों रुपयोंका दान देते हुए भीनामवरीका लालच नही रखते. इससे मालूम होता है कि संपति महाराजभी औसीही वृत्ति के मनुष्य
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