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[ ४९] सभ्याः श्रूयतां-" यो गंगामतरत्तथैव यमुनां यो नर्मदां शर्मदां, का बार्ता सरिदम्बुलंघनविधेयश्चार्ण तोगवान् । पोसाकं चिरचितोपि सहसा श्री रूपनारायण ! त्वदानांबुनिविप्रवाहलहरीमग्नो न संभाव्यते ॥ २ ॥” इति श्रुत्वापि श्री सौवर्णिकः पुनर्लक्षं दापितवान् । [वृद्ध पौशालीय पट्टावलो ]
श्री उदय वल्लभ मूरिके पट्ट पर श्री ज्ञान सागर मूरि गुरु हुए, जो कि सत्यार्थ थे और जिन्होंने श्री विमलनाथ चरित्र, आदि अनेक नवीन ग्रन्थ समूह के प्रकट करनेसे अपने नामको सार्थक कियाथा। जिन श्री ज्ञानसागर सूरिके मुख से-बादशाह श्री खिलवी महिम्मद ग्यास दीन सुलतान की दी हुई नगदल मलिक पदवीको धारण करनेवाले, मांडवगढ के निवासी तथा व्यवहारियों में श्रेष्ठ शाह श्री संग्राम सोनीने वृत्ति सहित श्री पञ्चम अङ्ग भ गवती ) को सुनकर " गोयमा " इस प्रत्येक पद पर सुवर्णकी मुद्राएँ रखी थी इस प्रकार
स सहस्र सुवर्णकी मुहरें हो गई, और जिनके उपदेशसे ( उन्होंने ) उस द्रव्य के व्ययके द्वारा
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