Book Title: Ghantamantrakalpa
Author(s): Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti Jaipur
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 22
________________ प्रस्तावना --- विज्ञान के इस उत्कर्ष काल में मंत्रों पर विश्वास करना अथवा मंत्रो द्वारा किसी फल की प्राप्ति की माशा करना कुछ अटपटासा लगता है। लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि मंत्र शास्त्र आज भी अपनी जगह है । उनका वृहद् साहित्य है । कुछ ग्रंथ प्रकाशित होने के पश्चात् भी अभी बहुत सा साहित्य अप्रकाशित है। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में मंत्र शास्त्र को बहुत सी पाण्डुलिपियां हमारे देखने में आयी हैं जिनका उल्लेख राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों को ग्रय सूचियां भाग एक, तीन, चार एवं पांध में देखा जा सकता है। पिछले कुछ वर्षों से मंत्र शास्त्र पर विशेष कार्य हुमा है। लघुविद्यानुवाद, मंत्रानुशासन, णमोकार कल्पः जैसी रचनायें प्रकाशित भी हुई है। इन रचनाओं के प्रकाशन से मंत्र साहित्य को सामान्य पाठकों तक पहुंचने में बहुत सहायता मिली है। इसके पूर्व मंत्र शास्त्र के ग्रंथ को देखकर ही पढ़कर रख दिया जाता था कि यह तो उनके समझ के बाहर है। लेकिन जब मंत्र शास्त्र के ग्रथ छपकर ग्राम पाठकों तक पाने लगे है तब से उनकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई है। यदि ऐसा नहीं होता तो लघुविद्यानुवाद का दूसरा संस्करण नहीं निकल सकता था। मंत्रों की साधना सरल कार्य नहीं है और उसे सामान्य गुहस्य अथवा साधु भी सिद्ध नहीं कर सकता। प्राचार्य धरसेन ने जब एक अक्षर न्यून अथवा एक अक्षर अधिक वाला मंत्र भूतवलि एवं पुष्पदन्त को साधना के लिये दिया था तो उन्हें सही देवी की सिद्धि नहीं हो सकी थी तथा उन्होंने अक्षरों को ठीक करके मंत्र साधना की तथा उन्हें इच्छित देवी के दर्शन हो सके थे। इसलिये गणधराचार्य कुथु सागरजी महाराज के शब्दों में पुण्यात्मानों को ही मंत्र सिद्ध हो सकते हैं। पापात्माओं को तो मंत्र साधना से दूर ही रहना चाहिये। - जैन इतिहास को उठाकर देखें तो हमें ऐसे अनेकों प्राचार्यों के नाम मिल जावेगे जिन्होंने अपने मंत्रों के प्रभाव से बहुत ही प्रभावक कार्य किये है। ऐसे प्राचार्यों में प्राचार्य धरसेन भूतवलि एवं पुष्पदन्त, प्राचार्य कुन्दकुन्द, प्राचार्य मानतुग, प्राचार्य समन्तभद्र, भट्टारक जिन चन्द्र, झानभूषण तथा वर्तमान में प्राचार्य महावीर कीतिजी, प्राचार्य विमल सागरजी के नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। . . प्राचार्य कुथु सागरजी महाराज गणधराचार्य है। वे अहनिश स्वाध्याय एवं तप साधना में लीन रहते हैं । उनका विशाल संध है, उपाध्याय श्री कनक नन्दीजी महाराज जैसे लेखनी के बनी उनके संघ में हैं। यह बहुत ही गौरव की बात है। :

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