Book Title: Ghantamantrakalpa
Author(s): Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti Jaipur
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 26
________________ NAMANKINNAMEANANNARENTIANSKAISE -- ...-- .. ..- -... XNXNXNNERINNER - जीवन-सार क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो ? किससे व्यर्थ धरते हो ? कौन तुम्हें मार सकता है ? प्रात्मा न पैदा हुई, न मरती है । • जो हुआ वह अच्छा हुआ ! जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है। जो होगा यह भी अच्छा ही होगा। * .तुम्हारा क्या होगा जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे जो तुमने खो : दिया ? तुमने क्या पैदा किया था जो नष्ट हो गया ? जो लिया - यहीं से लिया जो दिया यहीं पर दिया; खाली हाथ पाए और खाली . हाथ चल दिए। : : . .. .. .. . . ओ प्राण तुम्हारा है; कल और किसी का था; परसों किसी और का ... होगा। तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हों ? यही प्रसन्नता तुम्हारे दुःखों का कारण है। • एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण तुम दरिद्र हो जाते हो.) तेरा-मेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया, मन से मिटा दो. विचार से हटा दो। फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हों। -.--- ---. - • म यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो । यह शरीर अग्नि, जल वायु, पृथ्वी और आकाश से बना है और इन्हीं में मिल ...जायेगा। • तुम अपने आपको परमात्मा के लिए अर्पण कर दो यहो सबसे उत्तम सहारा है । जो इस सहारे को जानता है वह भय, चिन्ता, शोक इत्यादि से सर्वदा मुक्त रहता है। RREARRINRNIRMERIRAMMARRIANRAMMAR

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