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अन्धकार की जीवनी। सेर जल समाबे, दो चादर, एक लंगोटा और दो ढाई तोला अफीम, इसके सिवाय कुछ पास नहीं रक्खा, और चित्तमें ऐसा विचार करलिया कि जब तक यह अफीम पास में है तबतक तो खाउंगा, पश्चात् यह न रहने से और लेकर कदापि न खाउंगा, तमाखु जो पीता था उसी समय छोड़ दी और भांग तथा गांजेके वास्ते यह नियम कर लिया कि कहीं मिल जाय तो पी लेना।
बर्दवानमें उतरकर वैरागियोंके साथ मांग कर खाने लगा। दो तीन दिन पीछे वह अफीम खोगया, उसी दिनसे खाना वन्द कर दिया। दो तीन दिन पीछे सन्यासियोंके साथ चल दिया, पर यह विचार करता रहा कि कोई मुझे मेरा मत (धर्म) पूछेगा तो क्या बताउंगा। मैंने सोचा कि यती लोग तो परिग्रहधारी और छः काय का आरम्भ करते हैं और दंढिये लोग जिन-मन्दिरकी निन्दा करते हैं। इसलिये इन दोनोंका भेष लेना ठीक नहीं, और तीसरे भेदकी हमको खबर नही थी। इसलिये यह विचार किया कि जो कोई पूछे उसे यह कहना कि जैनका भिक्षुक हूं। ऐसा निश्चय करके उनके साथ फिर मकसूदाबाद आया। फिर दो चार दिन पीछे मंदिर की सुनी और दर्शन करनेको गया। और फिर बालुचर बड़ी पोसालमें शिवलालजी यती उस जगहके आदेशी थे उनसे भेट हुई। और उनके पुछने पर अपना सब वृत्तान्त कह दिया, तो उन्होंने यह कहा कि जिस मार्गमें संवेगी लोग पीले कपड़े वाले साधु हैं और उनमें कितने ही पुरुष शास्त्रके अनुसार चलने और पालने वाले हैं, सो उनका संयोग मारवाड या गुजरातमें तुम्हारे बनेगा, परन्तु अब आषाढका महिना आगया, इसलिये चौमासा यहीं कीजिये, वर्षाके पश्चात् आपकी इच्छाके अनुसार स्थान पर आपको वहां पहुचा देंगे । उनके अनुग्रहसे मैंने चार महीने वहां ही निवास किया। सो एक वेर भोजन किया करता, दूसरो वेर गांजा पीनेको बाहर जाता था। यह बात वहांके सब लोग जानते हैं। सिवाय यतिलोगोंके और किसी साधुगण, गृहस्थी, वा शेठ के पास जानेका मेरा प्रयोजन न हुआ, और इसीलिये उन यती लोगों की सोहबतसे शास्त्रकी कई
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