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ग्रन्थकार की जीवनी ।
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विचार किया कि जो साधुको स्त्रोके देखनेसे विकार पैदा होता है, तो भगवान अर्थात् जिन - प्रतिमाके देखनेसे हमको शक्ति रूप अनुराग पैदा होगा । इतना मन में धारकर फिर ढूंढिये चतुर्भुजजी से चर्चा की, तो उन्होंने भी शास्त्र के अनुसार मूर्ति-पूजा करना गृहस्थिका मुख्य कर्तव्य बताया, और मुझको नियम दिलाया। परन्तु उस देशमें तेरह-पन्थियों का बहुत चलन था । इस लिये उनके मंदिरमें जाता था और उन्हीकी संगति होने लगी, जिससे तेरह-पंथी दिगम्बरीयोंकी श्रद्धा बैठने लगी कारण यह कि भगवानने अहिंसा धर्म ( अहिंसा परमो धर्मः ) कहा है, सो मूर्ति के दर्शन करना तो ठीक है, परन्तु पुष्पादिक चढानेमें हिंसा होती है, ऐसी श्रद्धा हो गई। इसी हालमें सन्यासीका भी कहना मिलने लगा, और बन्धन से भी छूटने लगा। तब तो मुझको निश्चय हो गया कि मैं किसी समय में साधु हो जाउंगा। कुछ दिवस पीछे एक दिन मेरे पिताने मुझे ( सादी के विषय में ) कुछ कहा सुना, जिसपर मैंने यह कहा कि मुझे तो यथा नाम तथा गुण प्रगट करना है, इसलिये आपकी जाल में नहीं फंसता, मुझे तो फकीर बनना है, फकीरों को इससे क्या · मतलब ? उनका कहना न मानकर मैं विदेश (परदेश) को चला गया, और कई महीने तो कानेपुर में रहा, तत्पश्चात् प्रयाग, काशी आदि नगरों में होकर पटने जाकर रहा। कुछ दिन पीछे, पटनेके सदर मुन्सिफ जो दिगम्बरी था, उससे मेरी मुलाकात हो गई। उसके स्नेहसे मैं दो वर्षतक वहां रहा। इसी अरसेमें वे दूसरे शहरको गये तो मैं भी उनके साथ गया, वहां वीस पन्थियोंका अधिक जोर था सो उनकी संगतसे उनके कुछ शास्त्र भी देखे। उनमेंसे दयानतराय दिगम्बरीकी बनाई हुई पूजन जिससे तेरह - पन्थ की ज्यादः प्रवृत्ति हुई। उसमें लिखा था कि भगवत्की केसर, चन्दन, पुष्पादिक अष्ट द्रव्यसे पूजा करना। यह देख कर मेरी श्रद्धा शुद्ध हो गई कि भगवत्का पुष्पादिक से पूजन करना चाहिये । ऐसा तो मेरे चित्तनें जम गया, परन्तु दिगम्बर मतकी कई बातें मेरे चित्तमें नहीं बैठी, जिनका वर्णन तीसरे प्रश्नके उत्तरमें करूंगा ।
इसके बाद उन सदरमुन्सिफकी बदली पुर्नियाको होगई, तब मैं भी
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