Book Title: Dravyanubhav Ratnakar Author(s): Chidanand Maharaj Publisher: Jamnalal Kothari View full book textPage 9
________________ अन्धकार को जीवनी। प्रथम त्पन्न हुई थी। उसके पश्चात् दो लड़के उत्पन्न हुये, परन्तु वे दोनों अल्प कालही में नष्ट होगये। तव वे पुत्र के लिये अनेक प्रकारके यत्न करने लगे। थोड़े दिन पीछे मैंने उनके घरमें जन्म लिया, परन्तु मैं अनेक प्रकार के रोगोंसे प्रायः दुःखी रहता था। इसलिये मेरे माता पिता कई मिथ्या. देवी-देवतों को पूजने लगे। जो कि इस शरीर का आयुकर्म प्रबल था इस कारण कोई रोग प्रबल नही हुआ। मुझको मांगे हुए कपड़े पहनाए जाते थे, इसी कारण मेरा नाम फकीरचन्द रक्खा गया। मेरे पीछे उनको एक पुत्र और हुआ, जिसका नाम अमीरचन्द था। जब मैं कुछ बड़ा हुआ, तो एक पाठशालामें बैठाया गया और कुछ दिनों में होशियार होकर . अपनी दुकानोंके हानि-लाभ और व्यापार आदिको भली प्रकारसे समझने लगा। स्वामी, सन्यासियों और वैरागियोंके पास अक्सर जाया करता था और गांजा, भांग, तमाखु आदिका व्यसन भी रखता था। गंगास्नान और राम-कृष्णादिकोंके दर्शन करना मेरा नैतिक कर्म था। और हरेक मतकी चर्चा भी किया करता था। एक समय एक सन्यासी मुझको मिला। उस ने कहाकि कुछ दिन पोछे तुम भी साधु हो जाओंगे। मैंने यह उत्तर दिया कि मैं बधा हुआ हूं और पैदा करना मुझे याद हैं, फकीर तो वह बने जो पैदा करना न जाने। इतनी बात सुनकर बह चुप होगया, पर कुछ देर पीछे फिर बोला कि जो होनहार ( होनेवाला ) है, मिटनेका नही, तुमको तो भीख ( भिक्षा ) मांग कर खाना ही पड़ेगा। तब तो मुझको उन लोगोंकी संगतिमें कुछ भ्रम पड़ गया। पर जो बात उसने कही थी उसको हृदयमें जमा रख ली। अब हँढियो की सङ्गति अधिक करने लगा और इससे जैन मतमें श्रद्धा बधी और मन्दिरके मानने अथवा पूजनेसे चित्त उखड़ गया। थोड़े दिन बितने पर एक रत्नजी नामके साधु के, जिनको हम विशेष मानते थे, पोते चेले चतुर्भुजजी उस वस्तीमें आये और ' दशवैकालिक' सूत्र बांचने लगे। मैं भी वहां व्याख्यान सुनने जाया करता था। सो एक दिन ब्याख्यानम सुना कि "जिस जगह स्त्रीका चित्र हो वहां साधु नहीं ठहरे, कारण कि उसके देखनेसे विकार जागता है" यह बात सुनकर मैंने अपने चित्तम Scanned by CamScannerPage Navigation
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