Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 11
________________ मोहभाव मास्यौ तातै गहलता दूरि भई, अंतराय नासतें अनंत बल पेखिये // ज्ञानावरनी विनासि केवल प्रकास भयौ, : दर्शनावरनी गएँ लोकालोक देखिये / ऐसे महाराज जिनराज हैं जिहाज सम, तिनको सरूप लखि आपकौं विसेखिये // 4 // जान्यौ जिनदेव जिन और देव त्याग कीयौ, कीयौ सिववास जगवास उदवासकै। पूज्यौ जिनराज सो तौ पूजनीक जिन भयौ, ___पायौ निज थान सब करम विनासकै / ध्यायौ वीतराग तिन पायौ वीतराग पद, भयौ है अडोले फेरि भववन नासकै। जिनकी दुहाई जिनै गहौ और देव कोऊ, जातै लहै मोक्ष कभी जगमैं न आ सकै // 5 // .. सवैया तेईसा (मत्तगयन्द.)। जो जिनराज भजै तजि राज, वहै शिवराज लहै पलमाहीं। जो जिननाथ करै भवि साथ,सु होत अनाथ सबै गुण पाहीं॥ जो जिन ईस नमैं निज सीस, वहै जगदीस तजै पेरछाई। जो जिनदेव करै नित सेव, लहै शिव एव महा सुखदाई॥६॥ - छंद मल्लिकमाला। देखि भव्य वीतराग कीन घातिकर्म त्याग, तास रूप पेखि भाग लज्ज कामरूप। 1 छोड़कर / 2 निश्चल / 3 मत गहो। 4 अनाथ अर्थात् जिसका कोई नाथ न हो, खयं सबका नाथ / 5 पराई अर्थात् पुद्गलकी छायाको छोड़ देता है, उससे रहित हो जाता है / अथवा छायारहित (केवली ) हो जाता है। Scanned with CamScanner

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