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होते हैं। जब उन की आन्तरिक दशा इतनी उच्च हो तब उक्त प्रकार की लोकोत्तर स्थिति होने में के अचरज नहीं। साधारण योगसमाधि करने वाई महात्माओं की और उच्च चारित्र वाले साधारण लोगों का भी महिमा जितनी देखी जाती है उस पर विचार करने से अरिहन्त जैसे परम योगी की लोको
त्तर विभूति में सन्देह नहीं रहता। (२७)प्र०-व्यवहार (बाह्य) तथा निश्चय (आभ्यन्तर) दोनों दृष्टि
से अरिहन्त और सिद्ध का स्वरूप किस २ प्रकार
का है ? उ०-उक्त दोनों दृष्टि से सिद्ध के स्वरूप में कोई अन्तर
नहीं है। उन के लिये जो निश्चय है वही व्यवहार है, क्यों कि सिद्ध अवस्था में निश्चय-व्यवहार की एकता हो जाती है। पर रिहन्त के सम्बन्ध में यह बात नहीं है । अरिहन्त सशरीर होते हैं इस लिये उन का व्यावहारिक स्वरूप तो बाह्य विभूतियों से सम्बन्ध रखता है और नैश्चयिक स्वरूप आन्तरिक शक्तियों के विकास से। इस लिये निश्चय दृष्टि से अरि
हन्त और सिद्ध का स्वरूप समान समझना चाहिए। (२८)म०- उक्त दोनों दृष्टि से प्राचार्य, उपाध्याय तथा साधु
का स्वरूप किस २ प्रकार का है ? उ०-निश्चय दृष्टि से तीनों का स्वरूप एक सा होता है ।
तीनों में मोक्षमार्ग के आराधन की तत्परता, और