Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 7
________________ संसार की असारता - हे जीव ! यह संसार केले के तने के समान निस्सार है (९१); यह जग धोखे की टाटी है (११०); जैसे सराय में यात्री आते हैं और जाते हैं वैसे ही पुत्र स्त्री- भाई-बन्धु भी आते और जाते रहते हैं उनसे संयोग व वियोग होता रहता है (१०१)। आयु/ काल - अंजलि के जल के समान जीवन की स्थिति घट रही है ( ५१८); मृत्यु के आगमन की तैयारी चल रही है, उसके आगमन के बाजे बजने लगे हैं, तू उसकी आहट क्यों नहीं सुनता? (१०९); इस शरीर से प्राण एक क्षण में निकल जायेंगे और तब यह मृत शरीर माटी की तरह पड़ा रह जायगा (११०) । __ अवसर की दुर्लभता - यह नरभव और जैन धर्म का सुयोग दोनों ही अत्यन्त दुर्लभ अवसर हैं । गुरु कवि इस अवसर की दुर्लभता समझाते हुए इसका उपयोग करने की शिक्षा देते हैं हे नर ! बहुत कठिन संयोग से यह मनुष्यभव, उसमें भी यह अच्छा कुल पाया है, साथ में जिनवाणी सुनने का अवसर मिला है (७७); ये सब एकसाथ मिलना बहुत कठिन है, पर जब ये मिल ही गये हैं तो तू अपना हित करने में देर क्यों कर रहा है (१०२), (१०३), (१०४); ये श्रेष्ठ क्षेत्र, अच्छा कुल और जिनवाणी का संयोग काललब्धि से मिले हैं (७९), (९८); सत्संग, तीक्ष्ण विवेक-बुद्धि भी पाई है (८१), (८३): इसका उपयोग करो। यह नरभव तुझे मिला है जो इसे विषय- भोगों में खो देता है उसकी बुद्धि ही खराब है (१२२); जिनेन्द्र के वचनों को सुनने का अवसर अति दुर्लभ है, इसका उपयोग कर (१०८); यह अवसर बार बार नहीं मिलता (१२२); जैनधर्म पाकर तृ राग-द्वेष को छोड़ (७८); तेरा हित इसी में है, यह मनुष्य पर्याय, अच्छा कुल पाकर मन से ममत्व छोड़कर दुविधाभरी दशा से छुटकारा पाओ (१००); यह नरभव मोक्ष का द्वार है, मोक्ष-गमन का साधन है (९९); इन्द्र भी इस नर-पर्याय को पाने की कामना करते हैं जिसे तूने विषयों के वशीभूत होकर बिगाड़ दिया है (१०८); ऐसा अवसर बड़ी कठिनाई से मिला है, उसमें यदि अपने ही हित के लिए विलम्ब किया गया तो हे सयाने ! तुझे पछताना पड़ेगा (१०२): मनुष्य जन्म पाकर तुम इसे ऐसे ही व्यर्थ गँचाते हो मानो कोई कौवा उड़ाने के लिए अपना अनमोल रत्न फेंक देता है (९९); रत्न को समुद्र में फेंकने के बाद जैसे उसका मिलना दुर्लभ हो जाता है उसी भाँति मनुष्य भव को व्यर्थ गँवाने के बाद पुन: उसका मिलना कठिन हो जाता हैं (१०७); अन्न भी समझ ले, यह मनुष्य ( v11 )

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