Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 5
________________ गहन ध्यान द्वारा मोह का नाश करते हैं (४४); जो सांसारिक सुख की कामना छोड़कर आन्तरिक व बाह्य दोनों प्रकार से कठोर तप करते हैं ( ४५): जिनकी धारणा में स्त्र च पर का भेद स्पष्ट होने लगा है (४७): जो तिनके व स्वर्ण, शत्र व मित्र, निन्दक और प्रशंसक के प्रति समभाव रखते हैं (४५); जो पाँच समिति, तीन गुप्ति का पालन करते हुए आचरण का पालन करते हुए शुद्ध आत्मध्यान में स्थिर हो (४१); जिनकी लगन मोक्ष की ओर लग रही है (४५); ऐसे योगी अवश्य ही अभयपद मोक्ष लक्ष्मी को पायेंगे (४१)1 __ गुरु का संबोध .. ऐसे गुरु स्वयं इस भवसागर को अपने परिश्रम तप से पार करते हैं और दूसरों को भी ऐसा करने की शिक्षा देते हैं, प्रेरणा देते हैं, संबोधते हैं (४२)। आत्मस्वरूप - आत्मा का स्वरूप समझाते बताते हुए कहते हैं - आस्मा का रूप अनुपम है, अद्भुत है, इसको जानने से ही इस संसार से पार हो सकेंगे (७४); अपना भ्रम नाशकर ही स्वयं को जान सकोगे (७६); आत्मा चेतन है, जड़ता से-पुद्गल से भिन्न पृथक है। आत्मा ज्ञान स्वभाववाला है, आत्मा देहरूप नहीं है (१२०); रूप रस गंध-स्पर्श आत्मा के गुण/चिह्न नहीं है (१२१) इसलिए निज/स्त्र व पर की भित्रता को पहचान 'स्व' पर श्रद्धाकर, शुद्धस्वरूप के आचरण में लीन हो (११४), सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत का पानकर (११८) । विषय-भोग की निस्सारता - सत्गुरु बार-बार हित की बातें समझाते हैं। आत्मस्वरूप समझाने के बाद वे विषय- भोगों की निस्सारता समझाते हुए कहते हैं - हे मनुष्य ! मैं बार-बार तुम्हारे हित की बात कहता हूँ (६२); तुम मेरी सीख मानो और भोगों की ओर मत झुको (१४); भोगों की इच्छा-अभिलाषा अन्तहीन है, उसकी तृप्ति के लिए तीनलोक की सम्पदा भी कम है (९४); तू समझ कि ये विषय-भोग सर्प के समान धातक हैं (९०), (१२३): तू नाग सरीखे विषैले विषयों में ही लग रहा है (१२४); यह भी समझ कि विषधर तो एक ही बार डसता है, अहित करता है पर ये विषय-भोग तो बार बार डसते हैं, अहित करते हैं {९१), (१०७); कषायों की जलती हुई आग में चाहरूपी घी की आहुतियाँ डालता है (१०८); इनको चाहरूपी आग सब कुछ जला देती है, हमेशा जलाती रहती है (१०३) पर तेरी आदत खोटी है कि तू विषय भोगों की तरफ ही भागता है (९२), इनसे तृष्णा बढ़ती जाती है (१०९); इन इन्द्रिय-विषयों के कारण

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