Book Title: Dashkanthvadham
Author(s): Durgaprasad Dvivedi
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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दशकण्ठववम्
निष्पगिति । विष्वक् समन्तत । भूमिकाम् रूपान्तरम् | भूमिका रचनाया
स्यान्मूर्त्यतरपरिग्रहे - इति विश्व ॥ ११३ ॥
το
नृत्यन्नितान्तरागीव नियत्या प्रियया समम् ।
लक्ष्यश्चित्रपद क्रामन् भावे भावे रस वहन् ||११४॥
नृत्यन्निति । नियति कृतस्य कर्मण फलावश्यभावनियम । चित्रपद विचित्रचरणयासम् इति क्रियाविशेषणम् । भाव पदार्थ स्थायिभावश्च । लक्ष्यो
दृश्य ॥१९४॥
अन्तरेण क्रियामस्य स्वपरिस्पन्दलक्ष्मण ।
नान्यदालच्यते रूप न कर्म न समीहितम् ॥ ११५ ॥ अन्तरेणेति । अन्तरेण विना | स्वपरिस्पन्द एव लक्ष्म चिन्ह यस्य स
तस्य ॥ २१५||
तारकासुमनोनद्धव्योमकुन्तलपक्षकम् । दीप्तिमासलमार्तण्डचन्द्रमण्डलकुण्डलम् ॥११६॥
लोकालोकाचले शिवाचाल क्षुद्रघण्टिकम् | इतस्ततो रणद्भीमविद्युद्वलयकङ्कणम् ॥११७॥ अनिलान्दोलनोद्ध तपुष्करावर्तचेलकम् । तुभ्यत्क्षोणिघनाघातभग्नशेषफणागणम् ॥ ११८ ॥
तददोऽन्योन्य सघर्षोद्रेकदीर्णदिगन्तरम् ।
सर्त पर्तनारब्ध दिव्यस्त्रीपु सताण्डवम् ॥ ११६॥ ( चक्कलकम् ) ॥ इति कृतान्तविलसितम् ॥
तारकेत्यादि । तारका एव सुमनस पुष्पाणि, व्योम एव कुन्तलपक्षक चिकुरबन्ध । मार्तण्ड चन्द्रमण्डले एव कुण्डले । अचलश्रेणि एव क्षुद्रघटिका । विद्युद्वलयमेव कङ्कण करभूषणम् । पुष्करावर्ताख्यमेघ एव चेलकम् । चुभ्यन्त्या क्षोण्या घनाघातेन भग्न शेषफणागण यस्मिंस्तत् । तदद स्त्रीपु स

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