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चित्त-समाधि : जैन योग
चैतन्य विकास
संयम का शुन्य बिन्दु संयम का मध्य बिन्दु संयम का चरम बिन्दु सुप्ति सुप्ति-जागृति
जागृति अध्यात्म की भाषा में असंयमी अज्ञानी और संयमी ज्ञानी कहलाता है । टिप्पण-२३
स्वप्न और जागरण सापेक्ष हैं। मनुष्य बाहर में जागता है, तब भीतर में सोता है। वह भीतर में जागता है, तब बाहर में सोता है। बाहर में जागने वाला चैतन्य को विस्मृत कर देता है, इसलिए वह प्रमत्त हो जाता है। प्रमाद का अर्थ है---- विस्मृति । भीतर में जागने वाले को चैतन्य की स्मृति रहती है, इसलिए वह अप्रमत्त रहता है। अप्रमाद का अर्थ है--स्मृति । स्मृति जागरूकता है और विस्मृति स्वप्न
टिप्पण-२४
देखिये, टिप्पण क्रमांङ्क-१ टिप्पण-२५
चित्त को काम-वासना से मुक्त करने का दूसरा पालम्बन है---अनुपरिवर्तन के सिद्धांत को समझना। काम के प्रासेवन से उसकी इच्छा शांत नहीं होती। कामी बार-बार उस काम के पीछे दौड़ता है। काम अकाम से शान्त होता है अनुपरिवर्तन के सिद्धांत को समझने वाले व्यक्ति में काम के प्रति परवशता की अनुभूति जागृत होती है और वह एक दिन उसके पाश से मुक्त हो जाता है । टिप्पण-२६
- इसका वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है--साधक जैसा अन्तस् में वैसा बाहर में, जैसा बाहर में वैसा अन्तस् में रहे।
कुछ दार्शनिक अन्तस् की शुद्धि पर बल देते थे और कुछ बाहर की शुद्धि पर । भगवान् एकांगी दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने दोनों को एक साथ देखा और कहा—केवल अन्तस् की शुद्धि पर्याप्त नहीं है। बाहरी व्यवहार भी शुद्ध होना चाहिए। वह अन्तस् का प्रतिफल है। केवल बाहरी व्यवहार का शुद्ध होना भी पर्याप्त नहीं है । अन्तस् की शुद्धि के बिना वह कोरा दमन बन जाता है। इसलिए अन्तस् भी शुद्ध होना चाहिए। अन्तस् और बाहर दोनों की शुद्धि ही धार्मिक जीवन की पूर्णता है।
चित्त को कामना से मुक्त करने का चौथा पालम्बन है-शरीर की अशुचिता का दर्शन ।
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