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पायारो
टिप्पण-१८
संयम में रति और असंयम में अरति करने से चैतन्य और आनन्द का विकास होता है।
___ संयम में अरति और असंयम में रति करने से उसका हास होता है; इसलिए साधक को यह निर्देश दिया जाता है कि वह संयम से होने वाली अरति का निवर्तन करे।
टिप्पण-१६
जन्म, जरा, रोग और मृत्यु-~ये चार दुःख के मार्ग हैं। विरत के लिए ये मार्ग अबरुद्ध हो जाते हैं।
टिप्पण-२०
महावीर की साधना का मौलिक स्वरूप अप्रमाद है। अप्रमत्त रहने के लिए जो उपाय बतलाये गये हैं, उनमें शरीर की क्रिया और संवेदना को देखना मुख्य उपाय है। जो साधक वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होने वाली सुख-दुःख की वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, वह अप्रमत्त हो जाता है ।।
यह शरीर-दर्शन की प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है। सामान्यतः बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अन्तर की ओर प्रवाहित करने का प्रथम साधन स्थूल-शरीर है। इस स्थूल-शरीर के भीतर तैजस् और कर्म-ये दो सूक्ष्मशरीर हैं। उनके भीतर अात्मा है। स्थल-शरीर की क्रियानों और संवेदनों को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तैजस और कर्म-शरीर को देखने लग जाता है। शरीर-दर्शन का दृढ़ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है। जैसे-जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन की ओर बढ़ता है, वैसे-व से उसका अप्रमाद बढ़ता जाता है।
टिप्पण-२१
चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। उसका अनुभव अप्रमाद है । चैतन्य की विस्मृति हुए बिना प्रमाद नहीं हो सकता । कारागृह की दीवार में हुए छिद्र को जानकर बंदी के लिए प्रमाद करना जैसे श्रेय नहीं होता, वैसे ही मोह के कारागृह की दीवार के छिद्र को जानकर साधक के लिए प्रमाद करना श्रेय नहीं है ।
टिप्पण-२२
मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं : सुप्त, सुप्त-जागृत, और जागृत। ये अवस्थाएं शरीर की भांति चैतन्य में भी घटित होती हैं। उनका प्राधार चैतन्य-विकास का तारतम्य है :
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