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पायारो
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टिप्पण-८
भगवान महावीर ने दीक्षा की अवधि जीवनपर्यन्त बतलाई। जो व्यक्ति सही अर्थ में संयम-दीक्षा की साधना कर लेता है, उसका फिर असंयम-जीवन में लौटना संभव नहीं होता; अवधि आरोपित न
भाविक है। टिप्पण-8
यस्य हस्तौ च पादौ च, जिह्वाग्नं च सुसंयतम् । इन्द्रियाणि च गुप्तानि, राजा तस्य करोति किम् ?
जिसका हाथ, पैर और जिह्वाग्र संयत होता है और इन्द्रियाँ विजित होती हैं उसका राजा क्या बिगाड़ेगा ? टिप्पण-१० व ११
इन की व्याख्या दार्शनिक और साधना दोनों नयों से की गई है। दार्शनिक नय से व्याख्या इस प्रकार है--
कुछ दार्शनिक भविष्य के साथ अतीत की स्मृति नहीं करते। वे अतीत और भविष्य में कार्य-कारण-भाव नहीं मानते कि जीवन का अतीत क्या था और भविष्य क्या होगा। ___ कुछ दार्शनिक कहते हैं- इस जीव का जो अतीत था, वही भविष्य होगा।
तथागत अतीत और आगामी अर्थ को स्वीकार नहीं करते । महर्षि इन सब मतों की अनुपश्यना (पर्यालोचना) कर धुताचार के प्रासेवन द्वारा कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।
साधना-नय की व्याख्या इस प्रकार है----
कुछ साधक अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य के भोगों की अभिलाषा नहीं करते। कुछ साधक कहते हैं--प्रतीत भोग से तृप्त नहीं हुआ; इससे अनुमान किया जाता है कि भविष्य भी भोग से तृप्त नहीं होगा।
अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य के भोगों की अभिलाषा से राग, द्वेष और मोह उत्पन्न होते हैं। इसलिए तथागत (वीतरागता की साधना करने वाले) अतीत
और भविष्य के अर्थ को नहीं देखता—राग-द्वेषात्मक चित्त-पर्याय का निर्माण नहीं करते।
जिसका प्राचार राग, द्वेष और मोह को शान्त करने वाला होता हैं वह विघूतकल्प कहलाता है। वह तथागत विधूत-कल्प एयाणुपस्सी होता है--
(१) एतदनुपश्यी---वर्तमान में घटित होने वाले यथार्थ को देखने वाला । (२) एकानुपश्यी-अपनी प्रात्मा को अकेला देखने वाला।
(३) एजानुपश्यी-धुताचार के द्वारा होने वाले प्रकम्पनों या परिवर्तनों को देखने वाला।
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