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टिप्पण –४
सामान्यतः बाहर प्रवाहित करने का
महावीर की साधना का मौलिक स्वरूप श्रप्रमाद है । श्रप्रमत्त रहने के लिए जो उपाय बतलाये गये उनमें शरीर की त्रिया और सवेदना को देखना मुख्य उपाय है । जो साधक वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होने वाली सुख-दुःख की वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, वह अप्रमत्त हो जाता है । यह शरीर दर्शन की प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है । की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अन्तर की ओर प्रथम साधन स्थूल शरीर है। इस स्थूल शरीर के भीतर तैजस् और कर्म - ये दो सूक्ष्म शरीर हैं । उनके भीतर ग्रात्मा हैं । स्थूल शरीर की क्रियाओं और संवेदना को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमश: तेजस् और कर्म शरीर को देखने लग जाता है । शरीर - दर्शन का दृढ़ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है । जैसे-जैसे साधक, स्थूल से सूक्ष्म की ओर आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे उसका अप्रमाद जाता है ।
चित्त-समाधि : जैन योग
टिप्पण - ५
चूर्णि के अनुसार इस सूत्र का अनुवाद इस प्रकार होता है-जो पुरुष इन - शब्द, रूप, गंध, रस और स्पशों को भली-भांति जान लेता है उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवित्, ज्ञानवित्, वेदवित्, धर्मवित्, और ब्रह्मवित् होता है ।
शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की आसक्ति आत्मा की उपलब्धि में बाधक बनती है । इनमें ग्रासक्त मनुष्य ग्रनात्मवान् और अनासक्त आत्मवान् कहलाता है । जिसे आत्मा उपलब्ध होती है, उसे ज्ञान. शास्त्र, धर्म और आचार — सब कुछ उपलब्ध हो जाता है । जो आत्मा को जान लेता है, वह ज्ञान, शास्त्र, धर्म और आचार - सब कुछ जान लेता है ।
टिप्पण - ६
तुलना — “भिक्षु ! यह आशा करनी चाहिए कि दोष में भय मानने वाला, दोष में भय देखने वाला सभी दोषों से मुक्त हो जाएगा । (अंगुत्तरनिकाय, भा० १, पृ० ५१ )
टिप्पण- ७
कुछ दार्शनिक परिणामवादी ( अग्रवादी) होते हैं । वे समस्या के मूल को नहीं पकड़ते । उभरी हुई समस्या को सुलझाने का प्रयत्न करते हैं । भगवान् महावीर मूलवादी थे । वे परिणाम की अपेक्षा समस्या के मूल पर अधिक ध्यान देते थे । भगवान् के अनुसार दुःख की समस्या का मूल-बीज मोह है । शेष सब उसके पत्र - पुष्प
हैं ।
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