Book Title: Chaityavandan Bhashya Prashnottari
Author(s): Vignanjanashreeji
Publisher: Jinkantisagarsuri Smarak Trust

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Page 10
________________ करते हैं । साधक अपने आराध्य की अनुपस्थिति में उनकी प्रतिमा के दर्शन करके भी अपनी मंजिल प्राप्त कर सकता हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ जिनेश्वर के दरबार में "कैसे जाना और किस प्रकार की भक्ति करना" से सम्बन्धित है । अगर भक्त विधिपूर्वक देवाधिदेव जिनेश्वर की भक्ति करता हैं तो उसकी अनुभूति अत्यंत अनूठी हैं । सही सामग्री होते हुए भी अगर अनुपात की सावधानी न रहे तो सीरा नही बल्कि पटोलिया बन जाता है और सामान्य जागरुकता रह जाय तो हम सीरा (हलवा) पा सकते हैं । व्यवहार के क्षेत्र में जिस प्रकार से विधि की आवश्यकता है । ठीक उसी प्रकार अध्यात्म के क्षेत्र में भी सम्यग्ज्ञान आवश्यक हैं । जिन मंदिर एवं जिन प्रतिमा से सम्बन्धित प्रस्तुत ग्रंथ का भक्त श्रद्धालु अपने आराध्य की प्राप्ति में सदुपयोग करें । मैं सविनय कृतज्ञ हूँ पू. गुरुदेव उपाध्याय प्रवर श्री मणिप्रभ सागरजी म.सा. के प्रति जिनकी पावन प्रेरणा एवं कृपा की बदौलत ही यह कार्य संपन्न हुआ । सतत जागरुकता और कर्मशीलता की प्रतिमूर्ति पूजनीया माताजी म. श्री रतनमाला श्री जी म.सा. को भी नमन करती हूँ, साथ ही उनका वात्सल्य सदैव प्राप्त होता रहे । जिनका वात्सल्यमय अनुग्रह मेरे अंतर में प्राण ऊर्जा बनकर संचरित होता हैं, जिनका ममतामय सानिध्य मेरे जीवन में प्रत्येक कदम पर मार्ग दर्शन करता हैं, उन परम पूजनीया, परम श्रद्धेया गुरूवर्या श्री डॉ. विद्युत्प्रभाश्रीजी म.सा. के श्री चरणों में मेरी अगणित वंदनाएं समर्पित हैं । प्रस्तुत कृति का निर्माण आप श्री की प्रेरणा का परिणाम हैं । अन्यथा मुझ अबोध में वह योग्यता कहाँ ! आप श्री की कृपा दृष्टि सदैव बरसती रहे । चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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