Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 17
________________ (१६) प्रतिष्ठासोमकृत 'सोम सौभाग्य काव्य' इन ग्रंथो से मध्यकालीन इतिहास के विषय में उल्लेखनीय संदर्भ उपलब्ध होते है। जैसे उपकेशी जैन श्रेष्ठि समराशाह (समरसिंह, पिता का नाम देशक) के ग्यासुद्दीन तुघलक और अलप खां के साथ घनिष्ठ संबंध थे। उसकी प्रतिभा के कारण उसे कुतुबुद्दीन मुबारकशाह ने (दक्षिण भारत में) तेलंग का अनुशासक बनाया था। उसने फरमान प्राप्त करके शत्रुंजय तीर्थ का जीर्णोद्धार किया था। इसी समय में जसलशाह नामक श्रेष्ठि ने सन् १३१० में खंभात में अजितनाथ भगवान के मंदिर का निर्माण किया था। और भी श्रेष्ठियों के नाम उपलब्ध होते है जिन्होंने १५वी शताब्दी में जैन धर्म की सुरक्षा में महत्तम प्रदान किया था। पाटण के नरसिंह, वडनगर के देवराय, इडर के दो भाई विशाल और गोविंद, कर्णावली के वत्सराज, उपकेशी ओसवाल संघवी मांडलिक, पोरवाल संघवी साहशा, चित्रकूट के श्रावक कर्माशाह इत्यादि । मध्यकाल में जैनधर्म के प्रभाव की सुरक्षा करने में श्वेतांबर संप्रदाय के भिन्न गच्छीय आचार्य भगवंतो का भी विशेष प्रदान रहा। खरतर गच्छ के आ. श्रीजिनचंद्र सू. (तृतीय), आ. श्रीजिनकुशल सू., आ.श्रीजिनसागर सू., आ.श्रीजिनहर्ष सू., आ.श्रीजिनचंद्र सू. (चतुर्थ), तपागच्छीय आ.श्री जयकल्याण सू., आ.श्रीजयचंद्र सू., आ.श्रीरत्नशेखर सू., उपकेश गच्छ के आ. श्रीकनकसूरि., अंचल गच्छ के आ.श्रीमेरुतुंग सू., आ.श्रीजयकीर्तिसूरि, आ.श्रीजयकेसरी सू. । १५वी शताब्दी के मध्यभाग में तपागच्छीय आ. श्रीसोमसुंदर सूरि और उनके शिष्य आचार्यश्री मुनिसुंदरसूरि और आ.श्रीसुमतिसाधुसूरि ने जैनधर्म के प्रभाव की सुरक्षा के लिये प्रदान किया था। जैन आचार्य, जैन श्रेष्ठियों की अति श्रद्धा और समर्पण और कार्यशैली के परिणाम से कट्टर मुस्लिमशासकों को भी तीर्थयात्रा, अहिंसा एवं मंदिर बनाने के फरमान जाहिर करने के लिये बाध्य होना पडा। जब मूर्तिभंजक सुलतान मंदिर और मूर्तियों का नाश करने की आज्ञा देते थे उसी समय जैन समाज उनके नाक के नीचे ही मंदिर निर्माण या जिर्णोद्धार में व्यस्त थे। विध्वंसक थक गये किंतु सर्जनकार थके नहीं। इस समय में मानों की छोटे गृहमंदिर एवं धातु की छोटी मूर्ति और यंत्र के निर्माण कार्य में बाढ़ सी आयी। उस समय गुजरात में जैनियों की आबादी पालिताना, गिरनार, पालनपुर, तारंगा, अहमदाबाद, देवकुल पाटण इत्यादि शहर में ज्यादा थी। इन शहरों में नये ग्रंथो की रचना और पुराने शास्त्रों का पुनर्लेखन विपुल मात्रा में हुआ। मालवा सल्तनत मालवा के मध्ययुग का प्रारंभ परमारों के पतन से प्रारंभ होता है। परमारों का पतन इसा की १४वी शताब्दी के प्रारंभ में हुआ किंतु मालवा पर मुस्लीम आक्रमण का प्रारंभ बहोत पहले से हो चूका था। सन् ७२४ में आरब आक्रांता जुनैद ने मालवा पर हमला किया। इस आक्रमण को गुर्जर - प्रतीहार राजाओ ने परास्त किया। सन् ११९६ में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मालवा की उत्तर सीमा तक कूच की थी। वह वहीं से दिल्ली लौट गया।

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