Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 86
________________ चतुर्थः प्रकीर्णकतरङ्गः (अन्वयः) तस्मिन् चापल्यादोजसः जातः पुत्रः न जीवति, अयं गर्भः नवमे मासे प्रसूत्यै अधोमुखः स्यात्। उस में (मास में) ओज की चपलता होने पर उत्पन्न हुआ पुत्र जीवित नहीं रहता, यह गर्भ नौवें मास में प्रसूति के लिए अधोमुख होता है। (अर्थः) [मूल] अनुभूय परं योनिकष्टं जन्म ततः परम् । प्रसूतिसमये जातः पुत्रः सर्वाङ्गशोभितः॥२७७॥(४.१२) (अन्वयः) ततः परं प्रसूतिसमये परं योनिकष्टम् अनुभूय, सर्वाङ्गशोभितः पुत्रः जातः। (अर्थः) [मूल] शुक्रशोणितयोः साम्ये गर्भे षण्ढः प्रजायते। अधीरः सत्त्वहीनश्च धर्मकार्यविवर्जितः ॥ २७८॥ (४.१३) (अन्वयः) शुक्रशोणितयोः साम्ये गर्भे अधीरः सत्त्वहीनश्च धर्मकार्यविवर्जितः षण्ढः प्रजायते। (अर्थः) उसके पश्चात् प्रसव काल के समय कष्टप्रद ऐसे योनि के कष्ट का अनुभव करके सभी अंगों से शोभित पुत्र उत्पन्न हुआ। [मूल] वीर्य और रज की समानता होने पर गर्भ में अधीर, सत्त्व से हीन, धर्मकार्य से रहित ऐसा नपुंसक (पुत्र) उत्पन्न होता है। [मूल] (अन्वयः) वीर्येऽधिके भवेत्पुत्रः रक्तेऽधिके तथा कन्या, तस्मात् प्रयत्नेन वीर्यवृद्धिकरौषधं सेव्यम् । (अर्थः) वीर्येऽधिके भवेत्पुत्रः कन्या रक्तेऽधिके तथा । तस्मात् सेव्यं प्रयत्नेन वीर्यवृद्धिकरौषधम्॥२७९॥(४.१४) ५५ वीर्य के अधिक होने पर पुत्र होता है, उसी प्रकार रज की मात्रा अधिक होने पर पुत्री होती है, इसीलिए प्रयत्नपूर्वक वीर्य की वृद्धि करनेवाले औषधों का सेवन करना चाहिए। इति शरीरम् । वैद्यकसारः। [मूल] व्याधेः कर्मविपाकोक्तयुक्त्या नाशः क्वचिद्भवेत्। क्वचिद्भैषज्ययोगाच्च क्वचिद् दुःखानुभूतितः ॥ २८०॥(४.१५) (अन्वयः) व्याधेः नाशः क्वचिद् कर्मविपाकोक्तयुक्त्या, क्वचिद् भैषज्ययोगात्, क्वचित् दुःखानुभूतितश्च भवेत् । व्याधि का नाश कभी कर्म विपाक के युक्ति से, कभी दवाईयों के प्रयोग से, कभी दुःख की अनुभू से होता है। (अर्थः) तस्माच्छरीरे न हि रोगकारणं कर्मैव साक्षात्तु निमित्तकारणम्। रसादयस्तेऽसमवायिकारणं दोषाः प्रदुष्टाः समवायिकारणम्॥२८१॥ (४.१६) (उपजाति) १. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८

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