Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 84
________________ ॥चतुर्थः प्रकीर्णकतरङ्गः॥ [मूल] जिनाधिपं सर्वविदं प्रणम्य सङ्ग्रामसिंहेन परोपकृत्यै। प्रारभ्यते सम्प्रति बुद्धिसिन्धौ प्रकीर्णकस्तुर्यतरङ्गराजः ॥ २६६॥ (४.१) (उपजातिः) (अन्वयः) सर्वविदं जिनाधिपं प्रणम्य सङ्ग्रामसिंहेन सम्प्रति परोपकृत्यै बुद्धिसिन्धौ तुर्यतरङ्गराजः प्रकीर्णकः प्रारभ्यते। (अर्थः) सर्वज्ञ जिनश्रेष्ठ को नस्मकार करके संग्रामसिंह के द्वारा अब परोपकार हेतु बुद्धिसागर में चार तरंगों का राजा ऐसा प्रकीर्णक तरङ्ग प्रारंभ किया जाता है। [मूल] सद्वैद्यकार्थामृतसङ्गशीतः सामुद्रिकाद्यर्थवनाधिवासी । ज्योतिष्कलाविद्रुमकुञ्जखञ्जः सुखाय वस्तुर्यतरङ्गवायुः॥२६७॥(४.२) (उपजातिः) (अन्वयः) सद्वैद्यकार्थामृतसङ्गशीतः, सामुद्रिकाद्यर्थवनाधिवासी, ज्योतिष्कलाविद्रुमकुञ्जखञ्जः (एषः) तुर्यतरङ्गराजः वः सुखाय(भवतु) (अर्थः) वैद्यकशास्त्र के अर्थ रूप अमृत के संग से शीतल, सामुद्रिक आदि शास्त्र के अर्थ रूप वन में रहने वाला, ज्योतिष शास्त्र के अर्थ रूप वृक्ष के लतामंडप में रुका हुआ यह चौथा तरंग राज आप सुख के लिए हो। [मूल] दयामूलेन धर्मेण विना न स्यात्परं सुखम्। सुखस्थानं शरीरं तद्रक्षणीयं प्रयत्नतः॥२६८॥ (४.३) (अन्वयः) दयामूलेन धर्मेण विना परं सुखं न स्यात्, सुखस्थानं शरीरं तत् प्रयत्नतः रक्षणीयम्। (अर्थः) दया नामक मूल धर्म के बिना कोई सुख नही है, सुख का आश्रय शरीर है अतः उसकी प्रयत्न से रक्षा करनी चाहिए। स प्राप्नोत्यपमृत्युं यो युक्त्यात्मानं न रक्षयेत्। दीपो निर्वाणतां याति स्नेहपूर्णोऽपि वायुना॥२६९॥(४.४) [मूल] (अन्वयः) यः युक्त्या आत्मानं न रक्षयेत् सः अपमृत्युं प्राप्नोति, स्नेहपूर्णोऽपि दीपो वायुना निर्वाणतां याति। (अर्थः) जो युक्ति से अपने(शरीर की) रक्षा नहीं करता है वह अकालमृत्यु को प्राप्त करता है जैसे तेल से पूर्ण दिया वायु के द्वारा बुझ जाता है। [मूल] शरीरं न विना ज्ञानमात्मनः सुखदुःख दुःखयोः । सङ्क्षेपात् कथ्यते तावत्तदुत्पत्तिर्मयाधुना॥२७०॥(४.५) (अन्वयः) शरीरं विना आत्मनः सुखदुःखयोः ज्ञानं न (भवति), तावत् तदुत्पत्तिर्मया अधुना सङ्क्षेपात् कथ्यते।

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