Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 89
________________ बुद्धिसागरः [मूल] विण्मूत्रनिद्रावमिकासरेतःक्षुत्तृट्श्रमश्वासजवेगरोधात्। भवन्ति रोगा विविधाः शरीरे वातादयो वैद्यवरैरसाध्याः॥२९२॥(४.२७) (उपजातिः) (अन्वयः) विण्मूत्रनिद्रावमिकासरेतःक्षुत्तृट्श्रमश्वासजवेगरोधात् शरीरे वैद्यवरैः असाध्याः वातादयः विविधाः रोगाः भवन्ति। (अर्थः) विष्टा, मूत्र, निद्रा, उलटी,खाँसी, वीर्य(धातु), भूक, प्यास, श्रम, श्वास के वेग के अवरोध से शरीर में श्रेष्ठ वैद्य के द्वारा असाध्य ऐसे वात आदि विविध प्रकार के रोग होते हैं। |मूल] यः पूर्वमेकवेगार्तो यदि वेगान्तरं भजेत्। स दूरतो महाव्याधिमाकारयति मृत्यवे॥२९३॥(४.२८) (अन्वयः) पूर्वं यः एकवेगातः यदि वेगान्तरं भजेत्, सः दूरतः मृत्यवे महाव्याधिम् आकारयति। (अर्थः) पूर्व जो एक वेग से पीडित यदि दूसरे वेग को रोकता है, वह दूर से मृत्यु के लिए महान् व्याधि को बुलाता है। [मूल] त्यजेद्विषातुरो निद्रां ज्वरी च घृतभोजनम्। कर्णरोगी शिरःस्नानं व्यवायं नेत्ररोगवान्॥२९४॥(४.२९) (अन्वयः) विषातुरो निद्राम्, ज्वरी च घृतभोजनम्, कर्णरोगी शिरःस्नानम्, नेत्ररोगवान् व्यवायं त्यजेत्। (अर्थः) विष से युक्त को नींद का, बुखारी को घी से युक्त भोजन का, कर्णरोगी को सर के ऊपर से स्नान का तथा आँख के रोगी को मैथुन का त्याग करना चाहिए। मल) त्वग्दोषक्षयकासाक्षिवक्त्ररोगातरैर्नरैः। संसर्गो नैव कर्तव्यो यतः सञ्चारिणश्च ते॥२९५॥(४.३०) (अन्वयः) त्वग्दोष-क्षय-कास-अक्षिवक्त्ररोगातुरैः नरैः संसर्गो नैव कर्तव्यो यतः ते सञ्चारिणश्च। (अर्थः) चर्मरोग, क्षय, खांसी, आँख और मुख के रोगों से युक्त मनुष्यों के साथ संसर्ग नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये रोग संसर्गजन्य होते हैं। [मूल] यदि न स्याद् गृहे वित्तमिच्छेदङ्गं गदोज्झितम्। निशान्ते स पिबेत्तिस्रः प्रसृती: शीतलं पयः॥२९६॥(४.३१) (अन्वयः) यदि गृहे वित्तं न स्याद् गदोज्झितम् अङ्गम् (यः) इच्छेत् स निशान्ते तिस्रः प्रसृतीः शीतलं पयः पिबेत्। (अर्थः) यदि घर में धन न हो और अपना शरीर रोगों से मुक्त चाहता हो तो उसको रात्री के बाद (प्रातः) तीन अंजली ठंडा पानी पीना चाहिए। १. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८

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