Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 109
________________ बुद्धिसागरः [मल] निर्गुणानन्दतत्त्वस्याव्यक्तस्य परमात्मनः। अलक्षस्यैव यद् ध्यानं रूपातीतं तदुच्यते॥३८५॥ (४.१२०) (अन्वयः) निर्गुणानन्दतत्त्वस्य अव्यक्तस्य अलक्षस्य परमात्मनः एव यद् ध्यानं तद् रूपातीतम् उच्यते। (अर्थः) गुणरहित, आनन्द स्वरूप ऐसा तत्त्व, अव्यक्त, अलक्ष ऐसे परमात्म का हि जो ध्यान वह रूपातीत कहा जाता है। [मूल] निशीथे यस्तु जागर्ति मितं वक्ति जितेन्द्रियः। अल्पं मधुरमश्नाति स योगी सिद्धिमाप्नुयात्॥३८६॥(४.१२१) (अन्वयः) जितेन्द्रियः यः निशीथे जागर्ति, मितं वक्ति, अल्पं मधुरम् अश्नाति स योगी सिद्धिम् आप्नुयात्। (अर्थः) जिसने अपने इंद्रियों को जिता है ऐसा जो ब्रह्ममुहूर्त में जागता है, थोडासा बोलता है, अल्प और मधुर खाता है वह योगी सिद्धि को प्राप्त करता है। |मूल| श्रुते तत्त्वेऽप्यनभ्यासो बहुनिद्रालुता भ्रमः। जनेऽरतिः कामगोष्ठी योगिनो नाशहेतवः॥३८७॥(४.१२२) (अन्वयः) श्रुते तत्त्वे अपि अनभ्यासः बहुनिद्रालुता भ्रमः जने अरतिः कामगोष्ठी योगिनः नाशहेतवः (भवन्ति)। (अर्थः) सुने हुए तत्त्व में अनभ्यास, बहोत निद्रालुता, भ्रम, लोगों में अरति, काम के विषय में गोष्ठी(बाते करने वाले) योगी के नाश के लिए कारण होते है। [मूल] योगश्चतुर्विधो मन्त्रश्लयराज३हठाभिधः। सिद्ध्यत्यभ्यासयोगेन सद्गरोरुपदेशतः॥३८८॥(४.१२३) (अन्वयः) मन्त्र, लय, राज, हठाभिधः चतुर्विधः योगः सद्गुरोरुपदेशतः अभ्यासयोगेन सिद्ध्यति। (अर्थः) मन्त्रयोग,, लययोग,, राजयोग, हठयोग, इत्यादि नामसे चार प्रकार का योग सद्गुरु के उपदेश और अभ्यासयोग से सिद्ध होता है। मल] पद्मासनाद्यासनेषु संस्थितः प्राणरोधकृत्। यथोक्तं ध्यानमास्थाय समाधि परमं विशेत्॥३८९॥(४.१२४) (अन्वयः) पद्मासनादि आसनेषु प्राणरोधकृत् संस्थितः यथोक्तं ध्यानम् आस्थाय परमं समाधिं विशेत्। (अर्थः) पद्मासन इत्यादि आसनों में प्राण का निरोध करके योग्य रूप से स्थित ऐसा (पुरुष) विधिपूर्वक ध्यान को प्राप्त करके श्रेष्ठ ऐसी समाधि में प्रवेश करता है। महामन्त्रादिकं मन्त्रं जपन्नेकाग्रमानसः। मन्त्रादेवाप्नुयात्सिद्धिं मन्त्रयोगस्ततो मतः॥३९०॥(४.१२५) (अन्वयः) एकाग्रमानसः महामन्त्रादिकं मन्त्रं जपन् मन्त्रात् एव सिद्धिम् आप्नुयात्, ततः मन्त्रयोगः मतः। (अर्थः) एकाग्र मन वाला(पुरुष) महामंत्र आदि मंत्र का जाप करते हुए मंत्र से ही सिद्धि को प्राप्त करता है, इसीलिए मंत्रयोग माना है। A १. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८

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