Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 107
________________ ७६ बुद्धिसागरः मूल (अर्थः) गर्भ, बुढापा, जरायु बद्ध(पूर्ण) ऐसे संकट में गिरे हुए मनुष्य को दश मास (तक) सहन करने अयोग्य ऐसा दुःख उत्पन्न होता है। [मूल] बाल्ये ततः पूतिगन्धिमललिप्ताङ्गकः सदा। व्याधिभिः परिभूतश्च स दुःखीयत्यनिशं शिशुः॥३७४॥(४.१०९) (अन्वयः) ततः पूतिगन्धिमललिप्ताङ्गकः व्याधिभिः परिभूतः च सः शिशुः बाल्ये सदा अनिशं दुःखीयति। (अर्थः) उसके बाद पूति(बदबूदार),गंध, मल इनसे जिसका अंग लिप्त किया है, व्याधिओं के द्वारा आवृत ऐसा बालक बाल्य अवस्था में सदा निरंतर दुःख में अनुभव करता है। मूल] सम्पुष्टसर्वावयवः कन्दर्पकलितान्तरः। धनयौवनगर्वेण नित्यं माद्यति मन्दधीः॥३७५॥(४.११०) (अन्वयः) सम्पुष्टसर्वावयवः कन्दर्पकलितान्तरः मन्दधीः धनयौवनगर्वेण नित्यं माद्यति। (अर्थः) पोषित हुए है सब अवयव जिसके, मन में कामदेव के द्वारा पकडा हुआ ऐसा मंद बुद्धि वाला धन और यौवन के गर्व से सदा प्रमाद करता है। अस्थिरं यौवनं प्राप्य परस्त्रीरागरञ्जितः। धनं विपुलमासाद्य विकर्मशतमाचरेत्॥३७६॥(४.१११) (अन्वयः) अस्थिरं यौवनं प्राप्य परस्त्रीरागरञ्जितः विपुलं धनं आसाद्य शतं विकर्म आचरेत्। (अर्थः) परस्त्री के प्रेम में रममाण हुआ है ऐसा अस्थिर यौवन को प्राप्त करके बहोत धन को मिलाकर सैकडो पापकर्म करता है। [मूल] मुखं लालाभिराकीर्णं जराजर्जरितं वपुः। परिक्षीणाखिलाङ्गस्य तृष्णैका परिवर्द्धते॥३७७॥(४.११२) (अन्वयः) लालाभिः आकीर्णं मुखम्, जराजर्जरितं वपुः, परिक्षीणाखिलाङ्गस्य एका तृष्णा परिवर्धते। लार(थूक)से भरा हुआ मुख, बुढापे से जीर्ण हुआ शरीर, सर्वांग से कृश हुआ ऐसा(बुढापन उसमें) (सिर्फ)एक लालसा ही बढती है। तस्माच्च राजा सन्मानं शरीरं यौवनं धनम्। अनित्यमिव पश्येत श्रीसङ्ग्रामोपदेशतः॥३७८॥(४.११३) (अन्वयः) तस्मात् च राजा श्रीसङ्ग्रामोपदेशतः सन्मानम्, शरीरम्, यौवनम्, धनम् अनित्यम् इव पश्येत(त्)। (अर्थः) इसिलिए श्रीसंग्राम के उपदेश से राजा सन्मान, शरीर, तारुण्य, धन अनित्य के समान देखने चाहिए। [मल] इति मत्वा च सर्वज्ञः परमात्मा परः पुमान्। वीतरागश्चिरं ध्येयः संसारतरणेप्सुभिः॥३७९॥(४.११४) (अर्थ मिल

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