Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 82
________________ तृतीयो व्यवहारतरङ्गः [मूल] शुक्रः स्वोच्चगतो जीवो लग्नगोऽम्बुगतोऽथवा। स्वोच्चगो लाभगो वार्किः प्रारम्भे तद्गहं स्थिरम्॥२६२॥ (३.६८) (अन्वयः) प्रारम्भे शक्रः स्वोच्चगतः, जीवो लग्नगः अथवा अम्बगतः, स्वोच्चगः लाभगो वाऽऽर्किः तद्हं स्थिरम्। (अर्थः) जिस गृह के प्रारम्भ में शुक्रः अपनी उच्च राशि (मीन) में हो,गुरु लग्न में अथवा चौथे स्थान में हो, शनि अपनी उच्च राशि (तुला) में हो अथवा ग्यारहवे स्थान में हो वह घर स्थिर होता है। [मूल] गुरौ केन्द्रेऽथवा शुक्रे क्रूरैः षत्र्यायगैस्तथा। शुद्धैः केन्द्रव्ययच्छिद्रैः स्थिरलग्ने गृहं विशेत्॥२६३॥ (३.६९) (अन्वयः) गुरौ अथवा शुक्रे केन्द्रे तथा क्रूरैः षट्व्यायगैः शुद्धैः केन्द्रव्ययच्छिद्रैः स्थिरलग्ने गृहं विशेत्। (अर्थः) गुरु और शुक्र केंद्र में हो,क्रूर ग्रह छठवें, तीसरे या ग्यारहवे स्थान में हो, केंद्र;(१-४-७-१०) बारहवां और आठवां स्थान शुद्ध हो तब स्थिर लग्न में गृहप्रवेश करना चाहिए। इति वास्तुलक्षणम्। मूल] जगज्जनमनोहरं विपुलसारसद्मश्रियं, सदैव सफलोद्यमं सकलसत्कलाकोविदम्। करोति विनयास्पदं वरविवेकता लङ्कृतम्, नरं नृपतिवल्लभं व्यवहृतिः समासेविता॥२६४॥ __ (३.७०) (पृथ्वी ) (अन्वयः) समासेविता व्यवहृतिः नरं जगज्जनमनोहरम् विपुलसारसद्मश्रियम्, सदैव सफलोद्यम सकलसत्कलाकोविदम्, विनयास्पदम्, वरविवेकतालङ्कृतम्, नृपतिवल्लभं करोति। (अर्थः) व्यवहार का सेवन व्यक्ति को जनप्रिय करता है,विपुल और सारभूत लक्ष्मी का स्थान बनाता है, हमेशा सफल बनाता है, सर्व कला में कुशल बनाता है, सन्माननीय बनाता है, विवेकी बनाता है और राजवल्लभ बनाता है। [मूल] गौरा भाति च यस्य गौरवगुणैर्विश्वम्भरेवाऽपरा, रत्नालङ्कृतिसोज्ज्वलाखिलपरस्त्रीसोदरस्य प्रिया। शृङ्गारादिरसेन कान्तसुभगा सङ्ग्रामसिंहस्य तत्प्रोक्ते बुद्धिसुधाम्बुधौ व्यवहृतेरुर्मिस्तृतीयोऽभवत् ॥२६५॥(३.७१) १. शुक्रे स्वोच्चे तनौ वापि जीवे पातालगेऽथवा। लाभगे वा शनौ स्वोच्चे सम्पद्युक्तं गृहं स्थिरम्।। (शिल्परत्नाकर १४-१५९) २. गुरु शुक्र ए केंद्र गत होइ, छठां क्रूर होइ, तीज्य ग्यारमा सौम्य स्थिर लग्नि घरनो निवास कीजइ। इति अधिकं दृश्यते - को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८ शुभे केन्द्रत्रिकोणायद्विगैरायत्रिषष्ठगैः। पापैः शुद्धेऽष्टमे तुर्ये विजनुर्भाष्टमेऽङ्गके।।(शिल्परत्नाकर १४-१६६) ( ३. विवेचना इति भां२९६ , ओ २८७८ ४. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८

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