Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 61
________________ बुद्धिसागरः (अर्थः) धरती पर शासन करने वालों में मित्रता नहि होती, निर्दयी में धर्मता नहि होती, लोभी में गौरव नही होता और युद्ध में वह तीनों भी नहि होते। मल| सहात्मकर्ममर्मज्ञैर्विरोधं प्रकरोति यः। स वृक्षशाखामारुह्य तामेवाधो निकृतन्ति॥१५७॥(२.७०) (अन्वयः) यः सहात्मकर्ममर्मज्ञैः विरोधं प्रकरोति सः वृक्षशाखाम् आरुह्य ताम् एव अधः निकृतन्ति। (अर्थः) जो कर्म के मर्म को जानने वाले सहकर्मिओं के साथ विरोध करता है, वह वृक्ष के शाखा पर चढकर उसको हि नीचे से काटता है। [मूल] अथ प्रजा सेवकाश्च। [मूल] राजा नेता न चेत्सम्यक् तत्प्रजाऽन्यैः प्रपीड्यते। अकर्णधारा पवनैौरिवाम्भोधिमध्यगा॥१५८॥(२.७१) (अन्वयः) राजा सम्यग् नेता न चेत् तत् प्रजा अन्यैः प्रपीड्यते, पवनैः अकर्णधारा नौः अम्भोधिमध्यगा इव। (अर्थः) राजा अच्छा नेता न हो तो उसकी प्रजा दूसरों के द्वारा पीडित की जाती है, (जैसे) चालक के बिना पवन के द्वारा सागर में गई हुई नौका भटकती है। प्रजा स्वजनयित्री यद्राज्ये दुःखसमाकुला। तस्य धिग् जीवितं राज्ञो नामोच्चारेऽप्यघं महत्॥१५९॥(२.७२) (अन्वयः) यद्राज्ये स्वजनयित्री प्रजा दुःखसमाकुला धिग् तस्य राज्ञः जीवितम्, (तस्य) नामोच्चारे अपि महद् अघम्। (अर्थः) जिस राज्य में मा के समान प्रजा दुःखी है, उस राजा के जीवन को धिक्कार हो। (उसका) नाम लेने से भी बड़ा पाप होता है। मूल| यस्मिन् राज्ये प्रजापीडा कलहो यत्र मन्दिरे। न तद्राज्यं न तद्वेश्म वने वासो वरं ततः॥१६०॥(२.७३) (अन्वयः) यस्मिन् राज्ये प्रजापीडा, यत्र मन्दिरे कलहः(च), तत् न राज्यम्, तत् न वेश्मः, ततः वने वासः वरम्। (अर्थः) जिस राज्य में प्रजा पीडित है, जिस मंदिर में कलह है वह राज्य नहि है, वह घर नहि है। उससे वन में रहना अच्छा है। त्यजेद्राजानमत्युग्रं कृतघ्नं कृपणं तथा। कार्पण्यादविशेषज्ञं दुर्जनाधिष्ठिताङ्गणम्॥१६१॥(२.७४) (अन्वयः) अत्युग्रं कृतघ्नं कृपणं तथा कार्पण्याद् अविशेषज्ञं दुर्जनाधिष्ठिताङ्गणं राजानं त्यजेत्। [मूल]

Loading...

Page Navigation
1 ... 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130