Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 62
________________ द्वितीयो नयतरङ्गः (अर्थः) अतिशय क्रूर, कृतघ्न, कृपण, कृपणता के कारण सही-गलत का भेद समजने में असमर्थ, दुर्जनों को आश्रय देनेवाले राजा का त्याग करना चाहिए। [मूल] राजा दुष्टः सुतो मूर्यो दुश्चरित्रवती प्रिया। बान्धवैर्वैरमत्युग्रं हृदि शल्यचतुष्टयम्॥१६२॥(२.७५) (अन्वयः) दुष्टः राजा, मूर्खः सुतः, दुश्चरित्रवती प्रिया, बान्धवैः अत्युग्रं वैरम्, हृदि शल्यचतुष्टयम्। (अर्थः) दुष्ट राजा, मूर्ख पुत्र, दुष्ट चारित्रवती पत्नी, बांधवों के द्वारा अतिशय क्रूर ऐसा वैर ये हृदय में स्थित चार शल्य हैं। [मूल राज्ञो निन्दापरो नित्यं परोक्षे मन्त्रिणस्तथा। स केवलं विषं प्राश्य जीविताशां करोत्यपि॥१६३॥(२.७६) (अन्वयः) (यः) राज्ञः तथा मन्त्रिणः परोक्षे नित्यं निन्दापरः स केवलं विष प्राश्य अपि जीविताशां करोति। (अर्थः) जो राजा की तथा मंत्रियों की पीछे निंदा करने में सदा तत्पर रहता है वह विष को सेवन करके भी जीने की आशा करता है। [मूल] महिषी राजमाता च प्रतीहारः पुरोहितः। मुख्यो मन्त्री कुमारश्च षड् मान्या नृपवत्सदा॥१६४॥(२.७७) (अन्वयः) महिषी, राजमाता, प्रतीहारः, पुरोहित, मुख्यमन्त्री कुमारश्च (एते) षट् सदा नृपवत् मान्याः। (अर्थः) रानी, राजमाता, द्वारपाल, पुरोहित, मुख्यमंत्री और कुमार ये छह सदा राजा की तरह ही मानने योग्य है। [मूल] दरतो निष्फला सेवा निकटातिविनाशिनी। युक्ता मध्यस्थता ह्यस्मिन् राज्ञि वह्नौ गुरौ स्त्रियाम्॥१६५॥(२.७८) (अन्वयः) राज्ञि, वह्नौ, गुरौ, स्त्रियां दूरतः सेवा निष्फला निकटा अतिविनाशिनी (च) अस्मिन् हि मध्यस्थता युक्ता । राजा, वह्नि, गुरु, स्त्री इनकी दूर से किई हुई सेवा निष्फल है और पास से की हुई सेवा अतिशय विनाश करने वाली है, इनमें माध्यस्थ भाव ही योग्य है। [मूल] धातुवादकुवाणिज्यद्युतदपसेवया। समृद्धये करोत्याशां वाहनाशां(वहन्नाशां) समृद्धये॥१६६॥(२.७९) (अन्वयः) धातुवादकुवाणिज्यद्युतदुपसेवया समृद्धये आशां वहन् स मृतये आशां करोति। (अर्थः) धातुवाद, वाणिज्य में अनीति, जूआ खेलके तथा बूरे राजाकी सेवा करके जो समृद्धि की आशा करता है वह मरण की आशा करता है।' १. यहां पाठ संदिग्ध है, श्लोक का अर्थ अनुमान से किया है।

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