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तृतीयो व्यवहारतरङ्गः
मूल]
(अन्वयः) ये कृतघ्नाः स्वामिहन्तारो विश्वासघातकाश्च एते नराः विनिन्दिता महापातकिभिः समाश्च । एते
असम्भाष्या दर्शनात् पापकारिणः भवन्ति। एषां व्यवहाराधिकारेषु कथं हि योग्यता? (अर्थः) जो कृतघ्न, स्वामी की हत्या करने वाले, विश्वास घातकी हो, ये मनुष्य विशेष रूप निंदा करने योग्य
तथा महापापी के समान होते है। वे संभाषण करने अयोग्य, दर्शन मात्र से ही पाप को उत्पन्न
करानेवाले होते हैं। क्या वास्तव में इनकी व्यवहार में योग्यता है? [मूल] गुरुदेवाग्नितर्वब्रुिवापीकूपादिसन्निधौ।
न स्वपेत् कमलाकाङ्क्षी विनग्नो न जलार्द्रपात्॥२३३॥(३.३९) (अन्वयः) कमलाकाङ्क्षी गुरुदेवाग्नितर्व िवापीकूपादिसन्निधौ विनग्नः न स्वपेत्। (अर्थः) लक्ष्मी की इच्छा करने वाले ने गुरु, देव, अग्नि, वृक्ष मूल, बावडी, कुआ आदि के पास नहि सोना
चाहिए। पूर्ण नग्न नहि सोना चाहिए, पानी से गिले पैर रखकर नहि सोना चाहिए। यः परस्याऽधमर्णोऽपि स्वोत्तमर्णत्ववाञ्छया।
दद्याद्वित्तं कुशीलेन बहुनाऽपि स मूर्खराट्॥२३४॥(३.४०) (अन्वयः) यः परस्य अधमर्णः अपि स्वोत्तमर्णत्ववाञ्छया बहुना अपि कुशीलेन वित्तं दद्यात्, स मूर्खराट्। (अर्थः) जो दूसरे का देनदार है फिर भी लेनदार होने की इच्छा से गलत व्यक्ति को अधिक पैसे देता है वह
पागलों का राजा है। [मूल]
धीरः साहसिको मानी बलवानुद्यमप्रियः।
यः पराक्रमशीलश्च तस्माद्देवोऽपि शङ्कते॥२३५॥(३.४१) (अन्वयः) यः धीरः साहसिको मानी बलवान् उद्यमप्रियः पराक्रमशीलः च तस्मात् देव अपि शङ्कते। (अर्थः) जो धीर,साहसी,मानी,बलवान्,उद्योगप्रिय और पराक्रम से युक्त है उस से देव भी डरते हैं। [मूल] अतिस्नेहो न कर्तव्यः क्रोधो वापि पदे पदे।
कलहं वर्द्धयेन्नैतत् प्रान्ते दुःखकरं त्रयम्॥२३६॥(३.४२) (अन्वयः) पदे पदे अतिस्नेहः क्रोधो वापि न कर्तव्यः, कलहं न वर्द्धयेत्, प्रान्ते एतत्त्रयं दुःखकरम्। (अर्थः) पग-पग पर अधिक स्नेह नही करना चाहिए, क्रोध नही करना चाहिए, कलह को बढावा नही देना
चाहिए। ये तीन परिणाम में दुःखकर होते हैं। [मूल] विद्वद्गोष्ठया सरसया सङ्गीतैश्च सुभाषितैः।
मधुरैर्वल्लभालापैर्भाग्यवान् गमयत्यहः॥२३७॥(३.४३) (अन्वयः) भाग्यवान् सरसया विद्वद्गोष्ठ्या, सङ्गीतैश्च सुभाषितैः मधुरैर्वल्लभालापैः अहः गमयति। (अर्थः) भाग्यवान् (श्रेष्ठ पुरुषों) का दिन रसिक विद्वदगोष्ठी से, सङ्गीत से, सुभाषितों से, अच्छी मधुर बातों
से व्यतीत होता है।