Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 75
________________ बुद्धिसागरः [मूल] अविमृश्यात्मनः सारं राजमान्यैः समं कलिम्। यः करोति विनाशाय स्वस्य बन्धुजनस्य च॥२२६॥ (३.३२) (अन्वयः) यः आत्मनः सारं अविमृश्य राजमान्यैः समं कलिम् करोति (सः) स्वस्य बन्धुजनस्य विनाशाय च। (अर्थः) जो आत्मबल का विचार न करते हुए राजमान्यों के साथ झगडा करता है वह अपने तथा बंधु के विनाश का कारण होता है। [मूल] प्रभावमात्मनो यस्तु न वेत्ति धनगर्वतः। स नरः सुधिया नैव प्रार्थनीयः कथञ्चन॥२२७॥(३ ३३) (अन्वयः) यः धनगर्वतः आत्मनः प्रभावं न वेत्ति, सुधिया स नरः कथञ्चन नैव प्रार्थनीयः। (अर्थः) जो धन के गर्व से आत्मा के प्रभाव को नहीं जानता हो, बुद्धिमान (पुरुष) के द्वारा वह मनुष्य किसी भी प्रकार से प्रार्थना करने योग्य नहीं है। [मूल] मोघाऽपि प्रार्थना श्रेष्ठा गुणाधिकतरे नरे। खरारोहणतः श्रेष्ठं पतनं तुरगादधः॥२२८॥(३.३४) (अन्वयः) गुणाधिकतरे नरे मोघा अपि प्रार्थना श्रेष्ठा, खरारोहणतः तुरगाद् अधः पतनं श्रेष्ठम्। (अर्थः) अधिक गुणवाले पुरुष में की हुई निष्फल प्रार्थना भी श्रेष्ठ होती है, गधे पर सवार होने की अपेक्षा घोडे से नीचे गिरना अच्छा। [मूल] ऋणं कृत्वा व्ययं कुर्वन् पुरः सौख्यं न विन्दति। निजवित्तानुमानेन व्यवसायात् सुखी भवेत्॥२२९॥(३.३५) (अन्वयः) ऋणं कृत्वा व्ययं कुर्वन् पुरः सौख्यं न विन्दति, निजवित्तानुमानेन व्यवसायात् सुखी भवेत्। (अर्थः) ऋण करके खर्च करते हुए आगे सुख नहि प्राप्त होता है, अपने धन का अनुमान करके व्यवसाय से सुखी होना चाहिए। [मूल] व्याधिर्वैश्वानरो वादो व्यसनं वैरमेव च। महानर्थकरा ह्येते वर्द्धिताः पञ्च विश्रुताः॥२३०॥(३.३६) (अन्वयः) व्याधिः वैश्वानर: वादः व्यसनं वैरं एव च एते पञ्च वर्द्धिताः हि महानर्थकराः विश्रुताः। रोग,अग्नि,वाद,व्यसन,और वैर ये पांच प्रसिद्ध बढते हुए महान् अनर्थ करने वाले होते हैं। [मूल] कृतघ्नाः स्वामिहन्तारो ये च विश्वासघातकाः। विनिन्दिता नराश्चैते महापातकिभिः समाः॥२३१॥(३.३७) [मूल] असम्भाष्या भवन्त्येते दर्शनात् पापकारिणः। व्यवहाराधिकारेषु कथमेषां हि योग्यता? ॥२३२॥ (३.३८) (युग्मम्) (अर्थः) १. अयं श्लोकः हस्तप्रतिष न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८

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