Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 73
________________ बुद्धिसागरः (अन्वयः) कल्पवल्लीव विद्येयं सन्तुष्टा कीर्तिं लक्ष्मीं धृतिं रुपम् आरोग्यं बुद्धिवैभवम् किं न यच्छति? (अर्थः) विद्या कल्पवेली है। संतुष्ट विद्या कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, रुप, आरोग्य, बुद्धिवैभव क्या क्या नहि देती? [मूल] कृपणः पूर्णवित्तश्चेद्विद्यावान् गर्वपर्वतः। अहो चित्रं महद् दृष्टं पानीयादग्निरुत्थितः॥२१६॥(३.२२) (अन्वयः) पूर्णवित्तः कृपणः विद्यावान् गर्वपर्वतश्च अहो महत् चित्रं दृष्टं पानीयादरुत्थितः। (अर्थः) बहुत धनवान है मगर कंजूस है, विद्या संपन्न है लेकिन गर्व से पर्वत के समान है, अहो! ये विचित्र आश्चर्य देखा गया जैसे कि पानी से आग ऊठी हो। [मूल] अविज्ञातगृहे यानमज्ञातफलभक्षणम्। अज्ञातौषधसेवा च न कार्या कुशलेप्सुभिः॥२१७॥(३.२३) (अन्वयः) कुशलेप्सुभिः अविज्ञातगृहे यानम्, अज्ञातफलभक्षणम्, अज्ञातौषधसेवा च न कार्या। (अर्थः) कुशलता की इच्छा करनेवाले पुरुषने अज्ञात घर में जाना, अज्ञात फल का सेवन, अज्ञात औषधि से सेवा नहीं करनी चाहिए। [मूल] देशान्तरगतैः सद्भिर्व्यवसायहितेप्सुभिः। शुल्कभीत्या कुमार्गेण न गन्तव्यं कदाचन ॥२१८॥(३.२४) (अन्वयः) देशान्तरगतैः व्यवसायहितेप्सुभिः सद्भिः शुल्कभीत्या कुमार्गेण कदाचन न गन्तव्यम्। (अर्थः) परदेश में गये हुए व्यवसाय के हित में इच्छा रखनेवाले सज्जनों के द्वारा कर के डर से कभी भी गलत रास्ते से नहि जाना चाहिए। [मूल] शास्तारो बहवो यत्र यत्र राजा च बालकः। तद्राष्ट्रं चतुरैस्त्याज्यं स्त्रीप्रधानमराजकम् ॥२१९॥(३.२५) (अन्वयः) यत्र बहवः शास्तार: यत्र बालकः राजा च, स्त्रीप्रधानम् अराजकं चतुरैः तद् राष्ट्रं त्याज्यम्। (अर्थः) जहाँ पर बहुत शासन कर्ता हो, जहाँ बालक राजा हो, जो स्त्रीप्रधान हो तथा अराजक हो बुद्धिमानों के द्वारा वह राष्ट्र त्यागना चाहिए। [मूल] यस्य न ज्ञायते वित्तं कुलं धर्मः सुशीलता। तेन मैत्री विवाहश्च न कार्यः सुखमिच्छता॥२२०॥(३.२६) (अन्वयः) यस्य वित्तं, कुलं, धर्मः, सुशीलता न ज्ञायते, सुखमिच्छता तेन मैत्री विवाहश्च न कार्यः। १. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८ २. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८

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