Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 71
________________ ४० (अर्थः) बुद्धिमानों के द्वारा हमेशा देशकाल के प्रभावों के तत्त्वों को जानकर सभी कार्यों की योजना करनी चाहिए। [मूल] न दानेन विना कीर्तिर्न दानं कमलां विना । न सा लक्ष्मीर्विना पुण्यं न पुण्यं हि दयां विना ॥२०५॥(३.११) (अन्वयः) दानेन विना न कीर्तिः, कमलां विना न दानम्, पुण्यं विना न सा लक्ष्मीः, दयां विना न हि पुण्यम्। दान के सिवाय कीर्ति, धन के सिवाय दान, पुण्य के सिवाय वह लक्ष्मी और दया के बिना पुण्य होता। (अर्थः) कुरूपस्याप्यशीलस्य धनिनो हीनजन्मतः । गौरवं दृश्यते लोके तस्माद्धनमुपार्जयेत्॥२०६॥(३.१२) [मूल] (अन्वयः) कुरूपस्य अशीलस्य हीनजन्मनो धनिनोऽपि लोके गौरवं दृश्यते तस्माद्धनमुपार्जयेत्। (अर्थः) कुरूप, असदाचारी, नीच कुल में जन्मे हुए धनवान् का लोक में गौरव दिखता अतः धन प्राप्त करना चाहिए। निर्गुणोऽप्येष गुणवान्निष्कलङ्कः कलङ्क्यपि। नीचोऽप्युच्चासने सर्वैः स्थाप्यते धनवान्नरः॥२०७॥(३.१३) बुद्धिसागरः [मूल] (अन्वयः) सर्वैः एषः धनवान्नरः निर्गुणोऽपि गुणवान्, कलङ्क्यपि निष्कलङ्कः, नीचोऽपि उच्चासने स्थाप्यते। (अर्थः) सभी लोगों के द्वारा धनवान मनुष्य निर्गुण हो फिर भी गुणवान् कहा जाता है, कलंक से युक्त हो फिर भी निष्कलंक कहा जाता है और नीच हो फिर भी उच्च आसन पर बिठाया जाता है। गृहे भवति चेद् भूरि धनं स्वायत्तमर्जितम् । न दीयते च सत्पात्रे पश्चात्तापाय तद्भवेत् ॥ २०८॥ (३.१४) [मूल] (अन्वयः) गृहे स्वायत्तमर्जितं भूरि धनं भवति सत्पात्रे न दीयते चेद् तत् पश्चात्तापाय भवेत्। (अर्थः) घर में अपनी महेनत से कमाया हुआ बहुत धन हो और यदि वह सत्पात्र में नहि दिया गया तो पश्चाताप के लिए होता है। [मूल] श्रुत्वा सदुपदेशाँश्च पात्रे क्षेपो धनस्य न । निक्षिप्य भूमौ पात्रेण स मूढैरन्यथा कृतः ॥ २०९ ॥ (३.१५) (अर्थः) (अन्वयः) सदुपदेशान् च श्रुत्वा धनस्य पात्रे क्षेपो न (कृतः), मूढैः पात्रेण स भूमौ निक्षिप्य अन्यथा कृतः। सदुपदेश सुनकर (जिसने ) धन का पात्र में दान नहि किया (उसने) पात्र के बदले भूमि में धन डालकर उसे विपरीत कर दिया। १. घर नाहिं जइ भूरि घणो आपण न ऊपार्जिउ जइ सुपात्रनइ न दीजइ तव्य पच्छतावो होइ । इत्यधिकं को. २०००८।

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