Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 69
________________ तृतीयो व्यवहारतरङ्गः] मल सङ्ग्रामसिंहोक्तसुवृत्तशोभिवचःकदम्बश्रवणान्नराणाम्। धर्मार्थयुक्सन्नययुक्तिभाजां न जायते कुव्यवहारबुद्धिः॥१९५॥(३.१) (अन्वयः) धर्मार्थयुक्सङ्ग्रामसिंहोक्तसुवृत्तशोभिवचःकदम्बश्रवणात् सन्नययुक्तिभाजां नराणां कुव्यवहारबुद्धिः नन जायते। (अर्थः) धर्मार्थ से युक्त ऐसे संग्रामसिंह के द्वारा कहे हुए अच्छे वृत्त से शोभित वचन को सुनने से अच्छे नीतिमान मनुष्यों को दुर्व्यवहार में बुद्धि उत्पन्न नही होती। [मूल] सद्धर्मशास्त्रार्थविवेकविद्भिः समं सभासद्भिरपापबुद्ध्या। निर्णीय सम्यङ्नयतो नृपेण वाच्यस्तु लोकव्यवहार एषः॥१९६॥(३.२) (अन्वयः) नृपेण सद्धर्मशास्त्रार्थविवेकविद्भिः सभासद्भिः समम् अपापबुद्ध्या सम्यग् नयतो निर्णीय एषो लोकव्यवहार तु वाच्यः। (अर्थः) राजा ने सत् धर्म, शास्त्रार्थ, विवेक से युक्त ऐसे सभासदों के साथ अपाप बुद्धि से, सम्यक् नय से निर्णय करके यह लोकव्यवहार बोलना चाहिए। [मूल] कलौ नृपा लोभनिविष्टचित्ताः सत्या(भ्या)श्च लञ्चोल्लसदग्रहस्ताः। असत्यदम्भप्रवराश्च लोका गतं ततः सद्व्यवहारवृत्त्या॥१९७॥(३.३) (अन्वयः) कलौ नृपा लोभनिविष्टचित्ताः, सत्या(भ्या)श्च लञ्चोल्लसदग्रहस्ताः, असत्यदम्भप्रवराश्च लोका ततः सद्व्यवहारवृत्त्या गतम्। (अर्थः) कलिकाल में राजा लोभी है। अधिकारी वर्ग रिश्वत के लिये हाथ बढाते रहते है। साधारण जन असत्य और दंभ में कुशल है। (ऐसी स्थति में) सद्व्यवहार की बात व्यर्थ है। [मूल] विलोक्य लोकान् व्यवहारहीनान् सङ्ग्रामसिंहः सततं दयालुः। साधारणं सर्वजनानुकूलं प्रवक्ति किञ्चिद् व्यवहारवाक्यम्॥१९८॥(३.४) (अन्वयः) दयालुः सङ्ग्रामसिंहः सततं व्यवहारहीनान् लोकान् विलोक्य, साधारणं सर्वजनानुकूलं किञ्चिद् व्यवहारवाक्यं प्रवक्ति। (अर्थः) दयालु ऐसा संग्रामसिंह हमेशा व्यवहार से रहित लोगों को देखकर साधारण और सभी के लिए अनुकूल कुछ व्यवहार वाक्यों को कहता है।

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