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तृतीयो व्यवहारतरङ्गः
(अर्थः) जिसका धन, कुल, धर्म और सुशीलता नहीं मालूम होती है, सुख की इच्छा करने वाले पुरुष को
उसके साथ मैत्री और विवाह नहीं करना चाहिए। [मूल] समये व्यवसायस्तु कृतः स्याल्लाभदायकः।
पर्वतीर्थादिसंयोगे दत्तं बहुफलं यथा॥२२१॥ (३.२७) (अन्वयः) समये कृतः व्यवसायः तु लाभदायकः स्यात्, पर्वतीर्थादिसंयोगे दत्तं यथा बहुफलम्। (अर्थः) समय पर किया गया व्यवसाय लाभदायक होता है, तिथि और तीर्थादि के निमित्त में दिया गया दान
जैसे बहुत फलदायक होता है। [मूल| आपत्स्वप्यन्तं वाच्यं कातरैर्न कदाचन।
सत्येनैवापदं तीर्णा हरिश्चन्द्रादयो नृपाः॥२२२॥(३.२८) (अन्वयः) कातरैः आपत्स्वप्यनृतं न कदाचन वाच्यम्, हरिश्चन्द्रादयो नृपाः सत्येनैवापदं तीर्णाः। (अर्थः) कायर (मनुष्यों) के द्वारा कभी आपत्ति में भी असत्य भाषण नहीं करना चाहिए, हरिश्चन्द्रादि राजाओं
ने सत्य से हि बाधाओं को पार किया। [मूल] प्रहरेत् सर्वथा स्त्रीषु कदाचिन्नातिकोपतः।
विशेषाद्वालयुक्तासु सग स्वातुरासु च ॥२२३॥(३.२९) (अन्वयः) कदाचित् स्त्रीषु अतिकोपतः सर्वथा न प्रहरेत्, विशेषात् बालयुक्तासु, सगर्भासु, आतुरासु च। (अर्थः) कभी भी स्त्री को अतिक्रोध से ताडना नहीं चाहिए विशेष रूप से बालसहित, गर्भवती तथा बीमार। [मूल| वैरिणामपि भूपालपुरो मर्मप्रकाशनम्।
अयशस्करमेतद्धि न विधेयं मनीषिभिः॥२२४॥(३.३०) (अन्वयः) मनीषिभिः भूपालपुरो वैरिणामपि मर्मप्रकाशनं न विधेयम्, अयशस्करं हि एतद्। (अर्थः) विद्वानों के द्वारा राजा के सामने शत्रुओं का भी गुप्य बताना नहीं चाहिए, यह अयशकारी होता है। [मूल कार्यस्तु सततं सद्भिर्वेषो वित्तानुसारतः।
प्रभूतेऽपि धने धीरैर्न प्रभोरधिकः क्वचित् ॥२२५॥(३ ३१) (अन्वयः) सद्भिः सततं वित्तानुसारतो वेषः कार्यः। धीरैः प्रभूतेऽपि धने न प्रभोरधिकः क्वचित्। (अर्थः) सज्जनों के द्वारा हमेशा अपनी औकात के अनुसार वेष करना चाहिए, धीरों (पुरुषों) द्वारा अधिक
धन होने पर भी राजा से अच्छा वेष कभी धारण नहि करना चाहिए।
१. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८ २. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८