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और वंश परंपरागत अनुभव भी था। इस क्षमता और बुद्धिमत्ता के बल पर उनको अधिकारी पद और सन्मान मिले। इस पदाधिकार का और शासनसेवा का उपयोग करते हुए जैनधर्मावलंबीओं ने नये मंदिरो का निर्माण किया, पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार किया और संघयात्रा के लिये फरमान प्राप्त किये। इस कार्य में श्रमणसंस्था का भी बहोत बडा प्रदान रहा।
३) तत्कालीन जैन समाज को भी मुस्लीमशासकों की हकीकत प्रतीत हो गई थी, अगर वे सहकार न देते तो उनका सर्वस्व लूट लिया जाता था। अपने धंधा-रोजगार-परिवार और धर्मस्थानकों को सुरक्षित करने हेतु जैन समाज शासकों की और उनके परिवार की जरुरत पूरी करने के लिये आगे आया। जैनीओं का व्यापार क्षेत्र छोटे गाँव से बडे शहर तक फैला हुआ था, उनका यह आर्थिक साम्राज्य राजनैतिक परिधिओं से परे था। इस लिये शासकवर्ग को भी व्यापारीवर्ग की कुछ शरतों को मान्य होने के लिये बाध्य होना पडा, उनको सुरक्षा देनी पडी।
दिल्ली की केन्द्रवर्ती सल्तनत बहोत ही अस्थिर रही, अतः बहोत सारे प्रादेशिक राज्य अस्तित्व में आये। इसके कारण सामरिक और शुल्क की अपेक्षाओं का अन्त हो गया। अब वें प्रजा को ज्यादा लूंट भी नहीं सकते थे, क्यों कि प्रजा के साथ और सहकार के उपर ही उनका अस्तित्व निर्भर था। इसके लिये एक तर्फ राजपूत जैसे क्षत्रिय समाज को महत्व देना अनिवार्य हो गया। दसरी और जैन जैसे वैश्य समाज को हाथ पर रखना अनिवार्य हो गया। यही स्थिति अकबर से लेकर शाहजहाँ तक के मुगलशासकों की भी रही। औरंगजेब ने इस नीति का त्याग कर दिया, परिणामतः मुगलशासन का अन्त हो गया। ___ मुस्लीम शासकों के साथ जैनियों का संबंध देखकर और मुस्लीम काल में उनके धर्मस्थानों की अबाधा को देखकर पश्चाद्वर्ति कुछ एक विद्वानों ने ऐसी धारणा बना ली है कि जैनियों की इस देश को लूटने वाले आक्रांताओं को साथ समझौता करके इस देश को लंटने वालों को मदद की है। और वे हिंद विरोधी थे। किंत यह धारणा हकिकत पर नजर करने पर बेबुनियाद साबित होती है। जैन श्रेष्ठिवर्ग मुस्लिम शासकों के लिये धन एकत्रित करते थे यह बाह्य दिखावा था। वस्तुतः जैनों को इस कार्य हेतु बाध्य होना पड़ा था। मुस्लिम शासकों का उनके प्रति औदार्य भी विवशता के कारण ही था। जैन समाज अहिंसा में श्रद्धा रखता था। बलप्रयोग उनके खून में नही था। अतः वे हमेशा अपनी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सुरक्षा के लिये शासकवर्ग का सहारा लेना था। भौगोलिक दृष्टि से जैनों का अपना स्वतंत्र प्रदेश नही था जहां वे खुद को महफूझ समज सके। यह भी भूलना नहीं चाहिए की जहां पर शासकों के साथ जैनियों के अच्छे संबंध रहे वहां हिंदू समाज के धर्म स्थानों का विनाश कम हुआ। मालवा और अन्य क्षेत्रों में यह हकिकत नजर आती है। इतना ही नहीं जब भी प्रजा पर आपत्ति आयी तब भामाशा. जगडशा जैसे श्रेष्ठियों ने सभी धर्म के लोगों के लिये अपने अन्नक्षेत्र खले रखे थे।
मध्यकालीन इतिहास का इतना विहंगावलोकन करने के बाद संग्रामसिंह के इतिहास पर नजर करेंगे। वस्तुतः यह इतिहास संग्रामसिंह की पार्श्वभूमि जानने के लिये उपयुक्त है। संग्रामसिंह ने अपने ग्रंथों में अपना परिचय दिया है और पट्टावलीयों में उनके कार्य प्रभाव का वर्णन उपलब्ध होता है। उसके अनुसार उनका जीवनवृत्त हम जान सकते है। बुद्धिसागर में संग्रामसिंह ने दक्षिण में निझामशाह के साथ युद्ध का उल्लेख किया है। उसकी ऐतिहासिक सामग्री इस प्रकार है।