Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 58
________________ द्वितीयो नयतरङ्गः (अन्वयः) यः शरीरसुखलोभेन सेवालस्यं करोति स गुणवानपि राजवल्लभतां कथं याति? (अर्थः) जो शरीरसुख के लोभ से (राज) सेवा में आलस्य करता है, वह गुणों से युक्त होकर भी राजा के कृपा का पात्र कैसे होगा? मल मित्रभावेन यः कोऽपि मन्त्रं पच्छति सादरम। तस्मै कूटोपदेष्टाऽसौ शिरश्छेत्ता कथं स न?॥१४२॥(२.५५) (अन्वयः) यः कोऽपि मित्रभावेन सादरं मन्त्रं पृच्छति तस्मै कूटोपदेष्टासौ स शिरश्छेत्ता कथं न? (अर्थः) जो कोइ मित्रता के भाव से आदरपूर्वक मन्त्रणा को पूछता है, उसको गुप्त बात करनेवाला (पुरुष) शिरच्छेदन करनेवाले की तरह नहि होता है? मूल] राजमानं समासाद्य परोपकरणं नरः। करोति निःस्पृहत्वेन स यशस्वी नरोत्तमः॥१४३॥(२.५६) (अन्वयः) (यः) नरः राजमानं समासाद्य निःस्पृहत्वेन परोपकरणं करोति स यशस्वी नरोत्तमः(अस्ति)। (अर्थः) (जो) मनुष्य राजसंमान(मंत्रिपद) को प्राप्त करके इच्छा से रहित (होकर) परोपकार करता है वह यशस्वी पुरुष श्रेष्ठ है। [मूल यस्तु लञ्चैकलोभेन कार्यकारी स मध्यमः। लञ्चां प्राप्य पुनः कार्यं न करोति महाधमः॥१४४॥(२.५७) (अन्वयः) यः लञ्चैकलोभेन कार्यकारी स तु मध्यमः (यः) लञ्चां प्राप्य पुनः कार्यं न करोति (स) महाधमः। (अर्थः) जो पैसे की लालच से कार्य को करता है, वह मध्यम है। (जो) पैसे को प्राप्त करके भी कार्य को नहि करता वह महा अधम है। मूल] एकेऽप्येवंविधाः सन्ति जननीदोषदायिनः। परेषां लञ्चामादाय घ्नन्ति कार्याणि निष्ठुराः॥१४५॥(२.५८) (अन्वयः) एकेऽपि एवंविधाः जननीदोषदायिनः सन्ति, परेषां लञ्चाम् आदाय निष्ठुराः(ते) कार्याणि घ्नन्ति। (अर्थः) कोइ इस प्रकार जननी को दोष देने वाले होते हैं, दुसरों का धन स्वीकार करके निष्ठर ऐसे कार्य का घात करते हैं। [मल] सङ्ग्रामो नवनीरदश्च सदृशावेतौ सुपुण्योन्नतौ लोके जीवनदौ च निःस्पृहतया नित्योपकारप्रियौ। तद्युक्तं परतापखण्डनमहापाण्डित्यवादस्तयो रेकस्त्यागपरः प्रसन्नवदनश्चित्रस्तथा नापरः॥१४६॥(२.५९) (अन्वयः) सङ्ग्रामः नवनीरदश्च एतौ सुपुण्योन्नतौ सदृशौ, लोके जीवनदौ, निःस्पृहतया नित्योपकारप्रियौ च। तद्युक्तं तयोः परतापखण्डनमहापाण्डित्यवादः एकः त्यागपरः प्रसन्नवदनश्चित्रः तथा अपरः न।

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