Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 52
________________ द्वितीयो नयतरङ्गः [मूल] सुदृष्टिदानसन्मानैः शुभसम्भाषणेन च। नियोगांश्चैव कार्येषु सर्वान् सम्मानयेत्क्रमात्॥११०॥(२.२३) (अन्वयः) सृदृष्टिदानसन्मानैः शुभसम्भाषणेन च कार्येषु क्रमात् सर्वान् नियोगान् सम्मानयेत्। (अर्थः) अच्छी दृष्टि से, दान से, सन्मान से और शुभ संभाषण से क्रम से कार्यों में नियोगीओं का सन्मान करना चाहिए। स्वराष्ट्रे परराष्ट्रे च मित्रे शत्रौ चरेष्वपि । मन्त्रिणाऽऽलोचयेत्सर्वं कार्यजातं महीपतिः॥१११॥ (२.२४) २१ [मूल] (अन्वयः) महीपतिः स्वराष्ट्रे परराष्ट्रे मित्रे शत्रौ च चरेषु अपि मन्त्रिणा सर्वं कार्यजातम् आलोचयेत्। (अर्थः) राजा ने खुद के राष्ट्र के विषय में, दुसरे राष्ट्र के विषय में, मित्र के विषय में, शत्रु के विषय में, और गुप्तचरों के विषय में मंत्री के साथ सभी कार्य समूह का अवलोकन करना चाहिए। [मूल] परेङ्गितज्ञो धीरश्च मेधावी वाक्पटुस्तथा। प्राज्ञो यथोक्तवादी च चरो दुर्लक्षवेषवित्॥ १९२॥ (२.२५) (अन्वयः) परेङ्गितज्ञः, धीरः, मेधावी, वाक्पटुः च तथा प्राज्ञः, यथोक्तवादी, दुर्लक्षवेषवित् च चरः (भवति) (अर्थः) दुसरों के इरादे (आंतरिक विचार) जानने वाला, धीर, बुद्धिमान्, बोलने में प्रविण, विद्वान्, जैसा है वैसे बोलने वाला और दूसरा पहचान न सके ऐसे वेष को धारण करने वाला ऐसा चर (होता है।) [मूल] [मूल] क्रूरं स्तब्धमसन्तुष्टं सालस्यं मुखरं शठम्। अभक्तं तु त्यजेद् भृत्यं पालयेत्तमनीदृशम्॥११३॥(२.२६) (अन्वयः) क्रूरम्, स्तब्धम्, असन्तुष्टम्, सालस्यम्, मुखरम्, शठम्, अभक्तं तु त्यजेत् (यः) अनीदृशं (तं) भृत्यं पालयेत्। (अर्थः) क्रूर, मंद, असंतुष्ट, आलसी, वाचाल, धूर्त और अभक्त ऐसे (नोकर) का त्याग करो। जो ऐसा नही है उस का पालन करना चाहिए। [मूल] दुष्टदण्डः साधुपूजा कोशवृद्धिर्नयेन च । अपक्षपातः सद्रक्षा नृपाणां यज्ञपञ्चकम्॥११४॥ (२.२७) (अन्वयः) दुष्टदण्डः, साधुपूजा, नयेन कोशवृद्धिः, अपक्षपातः, सद्रक्षा च नृपाणां यज्ञपञ्चकम्। (अर्थः) दुष्टों के लिए दंड, साधु की पूजा, नीति से कोश की वृद्धि, भेदभाव न करना, और सत्य की रक्षा करना ये राजाओं के पांच यज्ञ हैं। मृगया तपानानि गर्हितानि त्यजेन्नृपः । तेभ्यो विपदमापन्नाः पाण्डुनैषधवृष्णयः ॥ ११५ ॥(२.२८)

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