Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 50
________________ द्वितीयो नयतरङ्गः (अन्वयः) वृद्धोपसेवी, नात्युग्रदण्डकृत्, दक्षः, अदीनवचनः, शूरः, धर्मी, षाड्गुण्यवित्, सुधीः राजा स्याद्। । (अर्थः) वृद्धों की सेवा करनेवाला, अधिक कठोर दण्ड को न करनेवाला, जागरूक, दीन वचनों से रहित, शूरवीर और धार्मिक इन छह गुणों को जाननेवाला बुद्धिमान् राजा होता है। [मूल] परीक्ष्यकारी सोत्साहो रिपुरन्चैकदृष्टिदः। वृद्धिव्ययविचारज्ञः स्मरत्युपकृतं च यः॥९८॥(२.११) [मूल] दृढप्रतिज्ञो मेधावी शक्तित्रयसमन्वितः। अकर्णदुर्बलो यायी, ह्यसन्तोषी रिपोर्जये॥९९॥(२.१२) [मूल] सर्वव्यसननिर्मुक्तो युद्धविद्यादिभिः सदा। विभक्तकालः सर्वत्र सावधानः प्रियंवदः॥१००॥(२.१३) [मूल] यत्नवानात्मरक्षासु गूढमन्त्रः प्रतापवान्। सुगुप्तरागरोषश्च भृत्येष्वननुसूचकः॥१०१॥(२.१४) ॥चतुर्भिः कुलकम्। (अन्वयः) परीक्ष्यकारी, सोत्साहः, रिपुरन्धेचैकदृष्टिदः, वृद्धिव्ययविचारज्ञः, उपकृतं च यः स्मरति, दृढप्रतिज्ञः, मेधावी, शक्तित्रयसमन्वितः, अकर्णदुर्बलः, यायी, रिपोर्जये ह्यसन्तोषी, सर्वव्यसननिर्मुक्तः, सर्वत्र सावधानः, प्रियंवदः, सदा युद्धविद्यादिभिः विभक्तकालः, आत्मरक्षासु यत्नवान्, गूढमन्त्रः, प्रतापवान्, भृत्येषु अननुसूचकः, सुगुप्तरागरोषः च (राजा भवति)। (अर्थः) निरीक्षण करके कार्य करनेवाला, उत्साहसंपन्न, शत्रु की निश्चित त्रुटि को(बल रहित स्थान को) देखनेवाला, जमाखर्च(आय-व्यय) का विचार करनेवाला, उपकार का स्मरण करनेवाला, प्रतिज्ञापरायण, तीन प्रकार की शक्ति (धनशक्ति, सैन्यशक्ति, बुद्धिशक्ति) से युक्त, अकर्णदुर्बल, (प्रजा के बीच) जानेवाला, शत्रु को जितने के लिये असंतोषी रहनेवाला, सभी प्रकार के व्यसनों से मुक्त, सदैव सावधान रहनेवाला, प्रिय वचन कहनेवाला और युद्धविद्या आदि में समय को बांटनेवाला, आत्मरक्षा में तत्पर, गूढ मंत्रणावाला, प्रतापी,सेवक को बार बार सूचना न देनेवाला, जिसका आनंद और क्रोध गुप्त है वह राजा है। [मूल] यामे च पश्चिमे नित्यं वेणुवीणादिजैः स्वनैः। गीतवाद्यैश्च विविधैः प्रबुद्धः शयनं त्यजेत्॥१०२॥(२.१५) (अन्वयः) नित्यं पश्चिमे यामे वेणुवीणादिजैः स्वनैः विविधैः गीतवाद्यैः च प्रबुद्धः(राजा) शयनं त्यजेत्। (अर्थः) प्रतिदिन रात के अन्तिम प्रहर में वेणुवीणादि के (मधुर) ध्वनि से, विविध प्रकार के गीतवाद्यों के द्वारा प्रबुद्ध ऐसा राजा निद्रा(शयनासन) को त्याग दे। [मूल] कृतदेहविशुद्धिश्च गतालस्यो जितेन्द्रियः। संस्मृत्य परमात्मानं जगत्कर्तारमव्ययम्॥१०३॥(२.१६) मिल] संसारसिन्धुतरणे सेतुमव्यक्तरूपिणम्। इति यश्चिन्तयेन्नित्यं चरचारुविलोचनः॥१०४॥(२.१७)

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