Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 49
________________ बुद्धिसागरः [मूल] अथ सङ्ग्रामसिंहोऽसौ दुर्जनेऽपि दयापरः। नृपोद्देशेन कुरुते हितं सर्वजनेष्वपि॥९२॥(२.५) (अन्वयः) अथ दुर्जनेऽपि दयापरः असौ सङ्ग्रामसिंहो नृपोद्देशेन सर्वजनेषु अपि हितं कुरुते। (अर्थः) दुर्जन पर भी दया करने वाला ऐसा यह संग्रामसिंह, राजा के उद्देश्य से सभी जनों में हित(कल्याण) को करता है। मूल] सङ्ग्रामोक्तहितैर्येषां न गता दुष्टचित्तता। तरणे: किरणैर्घको दिवान्धः कस्य दोषतः॥९३॥(२.६) (अन्वयः) सङ्ग्रामोक्तहितैः येषां दुष्टचित्तता न गता तरणेः किरणैः घूकः दिवान्धः कस्य दोषतः? (अर्थः) संग्राम के द्वारा कहे गए हितों से जिनकी दुष्टचित्तता नही गयी वहाँ किस का दोष हैं? जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश होते हुए भी दिन में उल्लू अंधा है वहां किस का दोष हैं? धर्मेण राज्यलाभः स्याद्राज्यवृद्धिर्नयेन च। अतोऽत्र नयरत्नानां पद्धतिं चतुरोचिताम्॥९४॥(२.७) [मूल] नरदेवहिता रम्यां सङ्ग्रामैकजयप्रदाम्। विश्वोपकारिणीं शुद्धां सङ्क्षपाद्रचयत्यसौ॥९५॥(२.८) ॥युग्मम्। (अन्वयः) धर्मेण राज्यलाभः नयेन राज्यवृद्धिः च स्यात्, अतः अत्र सङ्क्षपात् चतुरोचितां नरदेवहितां रम्यां सङ्ग्रामैकजयप्रदां विश्वोपकारिणीं नयरत्नानां शुद्धां पद्धतिम् असौ रचयति। (अर्थः) धर्म से राज्यलाभ और नीति से राज्य की वृद्धि होती है अतः संक्षेप से विद्वानों के योग्य, मनुष्यदेवों के हितवाली, रमणीय, युद्ध में विजय को देनेवाली, विश्व पर उपकार करनेवाली विशुद्ध ऐसी नीतिरत्न की पद्धति की(यह संग्रामसिंह) रचना करता है। [मूल] अथ राजा। [मूल] राजा राज्ञी कुमारश्च मन्त्रिणश्चाधिकारिणः। प्रजेत्युक्तक्रमाणां च विधेयमधुनोच्यते॥९६॥(२.९)' (अन्वयः) राजा, राज्ञी, कुमारश्च मन्त्रिणः, अधिकारिणः च प्रजेत्युक्तक्रमाणां च अधुना विधेयम् उच्यते। (अर्थः) राजा, रानी, कुमार, मंत्री, अधिकारी और प्रजा इस क्रम से विधेय (क्या करना चाहिए इसको) को अब कहते है। [मूल] राजा वृद्धोपसेवी स्याद्दक्षो नात्युग्रदण्डकृत्। अदीनवचनः शूरो धर्मी षाड्गुण्यवित्सुधीः॥९७॥(२.१०) १. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८

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