Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 47
________________ १६ [मूल] (अर्थः) (अन्वयः) दयायां अनुरागः, सन्ततम् च इन्द्रियवर्गस्य दमनम्, सत्यं तु वचनं वाच्यं हि एतद् धर्मस्य रहस्यम्। दया में आसक्ति, सदा इन्द्रिय के समूह का दमन (निरोध), सत्य वचन को कहना यह धर्म का रहस्य है। अनुरागश्च दयायामिन्द्रियवर्गस्य सन्ततं दमनम्। वाच्यं वचनं सत्यं, त्वेतद्धर्मस्य हि रहस्यम् ॥ ८४ ॥ (१.८४) (आर्या) [मूल] शीलं न खण्डनीयं, न सन्निवासः समं कुशीलैश्च गुरुवचनाद्यस्खलनं, धर्मस्यायं हि परमार्थः ॥ ८५॥ (१.८५) (आर्या) (अन्वयः) शीलं न खण्डनीयम्, कुशीलैः च समं न सन्निवासः, गुरुवचनाद् अस्खलनं धर्मस्य अयं हि परमार्थः। (अर्थः) शील का खंडन न होने देना, दुष्टाचारिओं के साथ न रहना और गुरुवचन का भंग न करना का परमार्थ है। [मूल] बुद्धिसागरः जन्म विमले कुले नृपतिसद्मसन्मान्यता । मुहुः प्रियसमागमोद्भवसुखं च लक्ष्मीः स्थिरा । शशाङ्कधवलं यशः सदसि वाक्पटुत्वं नृणाम्। दिशत्यनिशमर्जितः सुकृतकल्पवृक्षः फलम्॥८६॥ (१.८६) (पृथ्वी) (अन्वयः) विमले कुले सुजन्म, नृपतिसद्मसन्मान्यता, मुहुः प्रियसमागमोद्भवसुखं च स्थिरा लक्ष्मीः, शशाङ्कधवलं यशः, सदसि वाक्पटुत्वं नृणां दिशत्यनिशं अर्जितः सुकृतकल्पवृक्षः फलम्। (अर्थः) [मूल] (अर्थः) पवित्र कुल में अच्छा जन्म, राजा के दरबार में सम्मान, बार बार प्रिया के समागम से उत्पन्न होनेवाला सुख और स्थिर लक्ष्मी, चन्द्रमा की धवलता के समान यश, विद्वानों की सभा में वाक्पटुता इस प्रकार मनुष्यों को प्राप्त किए हुए सुकृत रूपी कल्पवृक्ष फल देता है। गौरा भाति च यस्य गौरवगुणैर्विश्वम्भरेवापरा रत्नालङ्कृतिसोज्ज्वलाखिलपरस्त्रीसोदरस्य प्रिया । शृङ्गारादिरसेन कान्तसुभगा सङ्ग्रामसिंहस्य धी सिन्धौ धर्मतरङ्ग एष शुभदस्त्वाद्योऽनवद्योऽभवत्॥८७॥(१.८७) (अन्वयः) यस्य च अखिलपरस्त्रीसोदरस्य रत्नालङ्कृतिसोज्ज्वला गौरवगुणैः अपरा विश्वम्भरा इव शृङ्गारादिरसेन कान्तसुभगा प्रिया गौरा भाति (तस्य) सङ्ग्रामसिंहस्य धीसिन्धौ एष शुभदः आद्यः अनवद्यः धर्मतरङ्गः अभवत्। परस्त्री के भाइ समान जिसकी रत्न और अलङ्कार से उज्ज्वल, गौरवगुण से दूसरी पृथ्वी के समान, शृङ्गारादि रसों से कान्त और सुभग गौरा नामक पत्नी है उस सङ्ग्रामसिंह विरचित बुद्धिसागर ग्रंथ में पहला निर्दोष धर्मतरङ्ग (पूर्ण) हुआ। इति श्रीसङ्ग्रामसिंहविरचिते बुद्धिसागरे धर्मतरङ्गः प्रथमः ॥१॥

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