Book Title: Buddhisagar
Author(s): Sangramsinh Soni
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 40
________________ प्रथमो धर्मतरङ्गः अथ गृही। [मूल] देवतातिथिभक्तश्च दीनानाथानुकम्पकः। स्वदारनिरतश्चापि गृही स्याच्च दयापरः॥४६॥(१.४६) (अन्वयः) देवतातिथिभक्तश्च, दीनानाथानुकम्पकः, स्वदारनिरतः, अपि च दयापरः च गृही स्यात्। (अर्थः) देवता, अतिथि, भक्त, दीन और अनाथ पर अनुग्रह करने वाला, खुद की पत्नी में संतुष्ट रहने वाला और दया से युक्त ऐसा गृहस्थ होता है। [मूल गुरुदेवार्चनं दानं पठनं संयमस्तपः। षट् कर्माणि प्रकुर्वाणो गृही मुच्येत बन्धनात्॥४७॥(१.४७) (अन्वयः) गुरुदेवार्चनम्, दानम्, पठनम्, संयमः, तपः षट् कर्माणि प्रकुर्वाणः गृही बन्धनात् मुच्यते। (अर्थः) गुरु और देव की पूजा, दान, पठन, संयम, तप (यह) छ कर्म करते हुवे गृहस्थ बन्धन(संसार बन्धन) से छुटता है। [मूल शुचिधौताम्बरधरो गन्धमाल्यफलाक्षतैः। दीपनीराजनैखूपनैवेद्यैर्देवमर्चयेत्॥४८॥(१.४८) (अन्वयः) शुचिधौताम्बधरः, गन्धमाल्यफलाक्षतैः, दीपनीराजनैधूपनैवेद्यैः देवम् अर्चयेत्। (अर्थः) पवित्र, श्वेत वस्त्र को धारण करने वाला (वह) सुगन्धित द्रव्य, माला, फल, अक्षत, दीप, नीरञ्जनि, धूप, नैवेद्य आदि के द्वारा देव को पूजें। [मल। नास्तिक्यलोभादियतो निन्दकश्चानुसूयकः। दम्भाद्धर्माभिमानी च गृही पाप्मै(पै?)कभाजनम्॥४९॥(१.४९) (अन्वयः) नास्तिक्यलोभादियुतः, निन्दकः, अनुसूयकः च दम्भात् धर्माभिमानी च गृही पाप्मैकभाजनम्। (अर्थः) नास्तिक और लोभ से युक्त, निंदक और अपमानित करने वाला, दम्भसे धर्म का अभिमान धारण करने वाला गृहस्थ पाप का एकमात्र स्थान है। अथ ब्रह्मचारी। [मूल] गुरुशुश्रूषको नित्यमाज्ञापालनतत्परः। भवेत्पठनशीलश्च ब्रह्मचारी स सत्यवाक्॥५०॥(१.५०) (अन्वयः) गुरुशुश्रूषकः, नित्यमाज्ञापालनतत्परः, पठनशीलः, सत्यवाक् च स ब्रह्मचारी भवेत्। (अर्थः) गुरुओं का सेवक, नित्य आज्ञा का पालन करने में तत्पर रहने वाला, अध्ययन ही जिसका स्वभाव है ऐसा, सत्य बोलने वाला वह ब्रह्मचारी होता है।

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