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( २० ) नेमिनाथजी की विनती
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त्रिभुवनगुरु स्वामी जी, करुणानिष्टि नामी जी ! सुनि अंतरजामी, मेरी वीनतीजी ॥ १ ॥
मैं दास तुम्हारा जी, दुखिया बहु भारा जी। दुख मेटनहारा, तुम जादोंपती
जी ॥ २ ॥
भरम्यो संसारा जी, चिर कहिं सार न सारे, चहुँ गति
विपति - भंडारा जी। डोलियो जी ॥ ३ ॥
दुख मेरु समाना जी, सुख सरसों दाना जी । अब जान धरि ज्ञान, तराजू तोलिया जी ॥ ४ ॥
थावर तन पाया जी, त्रस नाम धराया जी । कृमि कुंथु कहाया, मरि भँवरा हुवा जी ॥ ५ ॥ पशुकाया सारी जी, नाना विधि धारी जी । जलचारी थलचारी, उड़न पखेरु हुवा जी ॥ ६ ॥
नरकनके माहीं जी, दुख ओर न काहीं जी । अति घोर जहाँ है, सरिता खार की जी ॥ ७ ॥ पुनि असुर संघारै जी, निज वैर विचारें जी । मिलि बांधै अर मारैं, निरदय नारकी जी ॥ ८ ॥ मानुष अवतारै जी, रह्यो गरभमँझार जी | रटि रोयो जैनमत, वारें मैं घनों जी ॥ ९ ॥ जोवन तन रोगी जी कै विरहवियोगी जी । फिर भोगी बहुविधि, विरधपनाकी वेदना जी ॥ १० ॥ सुरपदवी पाई पाई जी, रंभा उर लाई जी । तहाँ देखि पराई, संपति झूरियो जी ॥ ११ ॥
भूधर भजन सौरभ