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(६८) ऐसो श्रावक कुल तुम पाय, बृथा क्यों खोवत हो॥टेक॥ कठिन, कठिन कर नरभव भाई, तुम लेखी आसान। धर्म विसारि विषयमें राचौ, मानी न गुरुकी आन ॥१॥ बृथा. ।। चकी एक मतंगज पायो, तापर ईंधन ढोयो। बिना विवेत जिला मतिही का, गाय सुधा पग धोयो!! २॥ बृथा. ।। काहू शठ चिन्तामणि पायो, मरम न जानो ताय । बायस देखि उदधिमें फैंक्यो , फिर पीछे पछताय॥३॥ बृथा.॥ सात विसन आठों मद त्यागो, करुना चित्त विचारो। तीन रतन हिरदैमें धारो, आवागमन निवारो।। ४॥ बृथा.॥ 'भूधरदास' कहत भविजनसों, चेतन अब तो सम्हारो। प्रभुको नाम तरनतारन जपि, कर्म फन्द निरवारो॥५॥ बृथा.॥
हे श्रावक ! तुमको ऐसा उत्तम श्रावक कुल मिला है, उसे तुम क्यों बेकार। निष्प्रयोजन ही खो रहे हो?
यह नरभव पाना अत्यन्त कठिन है, तुम इसे (पाना) इतना सहज समझ बैठे हो! गुरु की शिक्षा को नहीं मान रहे और धर्म को छोड़कर विषयों में रुचि लगा रहे हो!
चक्रवर्ती होकर हाथी तो पाया, परन्तु उसका उपयोग ईंधन ढोने में किया। इसी प्रकार बुद्धिहीन को अमृत मिला, उसने बिना विवेक, बिना बुद्धि के उसका उपयोग पग धोने में किया अर्थात् जो कुछ मिला उसका समुचित उपयोग नहीं किया।
जैसे किसी मूर्ख को चिन्तामणि रत्न मिला, परन्तु उसका महत्त्व नहीं जाना और कौवे को देखकर, उसे उड़ाने हेतु वह रत्न फेंक दिया, वह रत्न समुद्र में जा गिरा तो फिर पछताने लगा।
भूधर भजन सौरभ