Book Title: Bhudhar Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachand Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 111
________________ यह श्वास-आयुरूपी माल ( चरखे की डोरी जिसके सहारे चरखा घूमता है) का भी भरोसा नहीं हैं । सारे अवयव कहीं जड़ता से तो कहीं कंपन से ग्रस्त हैं । अब चरखे को/शरीर को रोज इलाज व मरम्मत की आवश्यकता होने लगी है, उसका इलाज करते-करते वैद्यरूपी बढ़ई भी हारने लगा है, थक गया है। नए चरखे की भाँति स्वस्थ-सुंदर देह सबके मन को आकर्षित करती है, पर यहाँ अब वे पहले के गुण तो सब पलट गए हैं, नष्ट हो गये हैं। ये (पलटा हुआ) रूप अब अच्छा नहीं लगता। रंग बदल गया। अब तो जो कुछ शेष है उसे इस जर्जर चरखे से (देह से) मोटा या बारीक जैसा भी काता जा सके कातकर अपना जीवन व्यतीत करो, क्योंकि अंतत: तो चरने की लकड़ी ईंधन के काम आयेगी, जलाई जायेगी अर्थात् यह देह भी अग्नि को समर्पित हो जावेगी। भूधरदास कहते हैं कि इस प्रकार समझे तभी सवेरा है, तभी बोध का होना है। भूधर भजन सौरभ

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