Book Title: Bhudhar Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachand Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 114
________________ (७५) चाल गांधीचन्द यह तन जंगम रूखड़ा, सुनियो भवि प्रानी। एक बूंद इस बीच है, कछु बात न छानी ।। टेक॥ गरभ खेतमें मास नौ, निजरूप दुराया। बाल अंकुरा बढ़ गया, तब नजरों आया ।।१॥ अस्थिरसा भीतर भया,. जानै सब कोई। चाम त्वचा ऊपर चढ़ी, देखो सब लोई ॥२॥ अधो अंग जिस पेड़ है, लख लेहु सयाना। भुज शाखा दल आँगुरी, दृग फूल रवाना॥३॥ वनिता वेलि सुहावनी, आलिंगन कीया। पुत्रादिक पंछी तहां, उड़ि वासा लिया ।। ४॥ निरख विरख बहु सोहना, सबके मनमाना। स्वजन लोग छाया तकी, निज स्वारथ जाना॥५॥ काम भोग फलसों फला, मन देखि लुभाया। चाखतके मीठे लगे, पीछे पछताया ॥६॥ जरादि बलसों छवि घटी, किसही न सुहाया। काल अगनि जब लहलही, तब खोज न पाया॥७॥ यह मानुष द्रुमकी दशा, हिरदै धरि लीजे। ज्यों हूवा त्यों जाय है, कछु जतन करीजें ॥८॥ धर्म सलिलसों सींचिकै, तप धूप दिखइये। सुरग मोक्ष फल तब लगैं, 'भूधर' सुख पइये॥९॥ हे भव्यजनो! सुनो, यह देह एक अस्थायी वृक्ष है, इस देह में एक आत्मा निवास करती है, यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है। माता के गर्भाशय में भूधर भजन सौरभ १०३

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