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(७३) राग श्रीगौरी
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काया गागरि, जोजरी, तुम देखो चतुर विचार हो ॥ टेक ॥ जैसे कुल्हिया कांचकी, जाके विनसत नाहीं वार हो ॥ मांसमयी माटी लई अरु सानी रुधिर लगाय हो । कीन्हीं करम कुम्हारने, जासों काहूकी न वसाय हो ॥ १ ॥ काया. ॥ और कथा याकी सुपथ र दश ठेह हो । जीव सलिल तहां थंभ रह्यौ भाई, अद्भुत अचरज येह हो ॥ २ ॥ काया ॥ यासौं ममत निवारक, नित रहिये प्रभु अनुकूल हो । 'भूधर' ऐसे ख्यालका भाई, पलक भरोसा भूल हो ॥ ३ ॥ काया ॥
हे चतुर ! जरा विचार करो और देखो यह कायारूपी गागर जर्जरित हो रही है, इसकी स्थिति काँच के पात्र को सी है जिसे नष्ट होने में जरा भी देर नहीं लगती ।
मांसमयी मिट्टी को रक्त से सानकर कर्मरूपी कुम्हार ने इसे बनाया है जिसमें किसी का भी स्थिर निवास नहीं होता। इसकी एक कथा और सुनो, इसमें ऊपरनीचे दश द्वार हैं जिसमें जीव-जल ठहरा हुआ है, यह एक विचित्र आश्चर्य हैं !
इससे (काया से ) ममता छोड़कर, प्रभु से अनुरूपता करो, उससे मेल करो, उसका चितवन करो। भूधरदास कहते हैं कि शीघ्र ही ऐसा ख्याल ( विचारचिंतन) करो, क्योंकि तनिक सा भी भरोसा करना भूल हो सकती हैं । अर्थात् शरीर पर भरोसा मत करो।
जोजरी जर्जरित टूटी-फूटी बसाय
भूधर भजन सौरभ
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बसावट, निवास |
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