Book Title: Bhudhar Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachand Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 122
________________ ( ८१ ) राग सोरठ 1 अहो दोऊ रंग भरे खेलत होरी। अलख अमूरति की जोरी ॥ अहो. ॥ इतमैं आत्तम राम रंगीले, उत्तमैं सुबुद्धि किसोरी । या कै ज्ञान सखा संग सुन्दर, बाकै संग समता गोरी ॥ १ ॥ अहो ॥ सुचि मन सलिल दया रस केसरि उदै कलस मैं घोरी सुधी समझ सरल पिचकारी, सखिय प्यारी भरि भरि छोरी ॥ २ ॥ अहो. ॥ सत गुरु सीख तान धुरपद की, गावत होरा होरी । पूरब बंध अबीर उड़ावत, दान गुलाल भर झोरी ॥ ३ ॥ अहो . ॥ 'भूधर' आजि बड़े भागिन, सुमति सुहागिन मोरी | सो ही नारि सुलछिनी जगमैं, जासौं पतिनै रति जोरी ॥ ४ ॥ अहो ॥ · अहो, देखो आत्मा व सुमति दोनों रंग भर भरकर होली खेलते हैं। यह अलख-अदृश्य, न दिखाई देनेवाली की और अमूर्त की जोड़ी है। एक ओर तो ज्ञानरंगों से रंगीले आत्माराम हैं और दूसरी परिपक्वता की ओर अग्रसर सुबुद्धि सुमतिरूपी किशोरी है। एक के (आत्मा के ) साथ मित्ररूप में ज्ञान है तो दूसरे के ( सुमति के ) साथ समता-रूपी सहेली। आत्मा देहरूपी कलश में जल के समान शुद्ध मन में करुणारस की दया की केशर घोलकर विवेकसहित सरल भावों की पिचकारी भर-भरकर सखियों मर छोड़ रही है, अर्थात् करुणाभाव सर्वांग से मुखरित हैं। जैसे होली के अवसर पर गाई जानेवाली ध्रुपद में काफी वाट की धुन - बंदिश अत्यन्त मधुर होती है, वैसे ही सत्गुरु का सदुपदेश अत्यन्त मनमोहक व सुग्राहय होता है, जिसे हृदयंगम करने पर आत्मानुभूति से बँधी कर्म - श्रृंखला उदय में आकर निर्जरित होती है, अबीर की भाँति उड़ती जाती है । भूधरदास कहते हैं कि बड़े भाग्य से आज यह सुमति सुहागिन मेरी हुई हैं अर्थात् मुझे विवेक जागृत हुआ । आत्मारूपी वर के लिए सुमति ( सम्यक्ज्ञान ) ही एकमात्र योग्य सुलक्षणा ऋभू है, इसके साथ की गई प्रीति ही फलदम्यक है। भूधर भजन सौरभ १११

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