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गुरु-विनती भरतरी (दोहा)
ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जिहाज । आप तिरैं पर तारहीं, ऐसे श्रीऋषिराज ॥ १ ॥ ते गुरु. ॥
मोह महारिपु जीतिकें, छांड्यो सब घरबार । होय दिगम्बर वन बसै, आतम शुद्ध विचार ॥ २ ॥ ते गुरु. ॥
रोग उरग-बिल वपु गिण्यो, भोग भुजंग समान । कदली तरु संसार है, त्यागो सब यह जान ॥ ३ ॥ ते गुरु. ॥
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रतनत्रय निधि उर धेरै अरु निरग्रंथ त्रिकाल । मार्यो काम - खबीसको, स्वामी परम दयाल ॥ ४ ॥ ते गुरु. ॥
पंच महाव्रत आदरें, पांचों समिति समेत । तीन गुपति पालैं सदा, अजर-अमर पद हेत ॥ ५ ॥ ते गुरु. ॥
धर्म धेरै दशलक्षणी, भावैं भावना सार
सहैं परीसह वीस द्वै, चारित - रतन भँडार ॥ ६ ॥ ते गुरु. ॥ जेठ तपै रवि आकरो, सूखै सरवर-नीर । शैल - शिखर मुनि तप तपैं, दाझैं नगन शरीर ॥ ७ ॥ ते गुरु. ॥
पावस रैन डरावनी, वरसै जलधर-धार ।
तरुतल निवसैं तब यति, बाजै
झंझावार ।। ८ ।। ते गुरु . ।।
सब वनराय ।
शीत पड़ै कपि-मद गलै, दाहँ ताल तरंगनिके तटै ठाड़े ध्यान लगाय ॥ ९ ॥ ते गुरु. ॥
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इहि विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों कालमँझार ।
लागे सहज सरूपमें, तनसों ममत निवार ॥ १० ॥ ते गुरु. ॥
भूधर भजन सौरभ
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