________________
है वह सब पापरूपी धतूरे के वृक्ष के रस से सने परिणाम हैं ; उसके फलस्वरूप नित्य नए रोग, शोक, सन्ताप, दुःख होते हैं । दोषयुक्त शरीर, वस्त्रहीन, घर-घर माँगता फकीर, भूख-प्यास की पीड़ा से व्याकुल होकर मुट्ठी भर अनाज को याचना और पद-पद पर दुत्कारा जाना, तिरस्कृत होना ये सब पूर्वसंचित पाप कर्मों के प्रत्यक्ष परिणाम हैं, ये जगत में असुंदर, बुरे, असुहावने लगते हैं।
इस संसार में ये दो ही प्रकार के वृक्ष हैं . धर्मवृक्ष और अधर्मवृक्ष। जिसे तेरा मन माने, तू उसे ही सींच। अब तुझे बार-बार कौन कहे ! तू ही कर्ता है, तू ही भोक्ता है, तू ही उसके परिणामस्वरूप सुख-दुःख भोगता है।
भूधरदास कहते हैं जिनेन्द्र का बताया हुआ मार्ग तीनों लोक में सुन्दर है, सेवन करने योग्य है । वह धन्य है जिसको यह समझ आ जाये क्योंकि इस संसाररूपी वन में यह (जिनेन्द्र का मार्ग) ही एकमात्र शरण है, सदेव शरण हैं।
लाहा = लाभ । लुनि - (फसल) काटना ।
भूधर भजन सौरभ