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(५८) राग सोरठ
अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ॥ टेक ॥ फल चाखन की बार भरै हग, मरि है मूरख रोय ॥
किंचित् विषयनि सुख के कारण, दुर्लभ देह न खोय । ऐसा अवसर फिर न मिलैगा, इस नींदड़ी न सोय ॥ १ ॥ अज्ञानी ॥
इस विरियां मैं धर्म - कल्पतरु, सींचत स्याने लोय ।
तू विष बोवन लागत तो सम, और अभागा कोय ॥ २ ॥ अज्ञानी ॥ जे जगमें दुखदायक बेरस, इस हीके फल सोय यो मन 'भूधर' जानिकै भाई, फिर क्यों भोंदू होय ॥ ३ ॥ अज्ञानी ॥
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हे अज्ञानी ! तू पापरूपी धतूरा का विष वृक्ष मत बो। जब इसके फल चखने का समय आता है तो दुःखी होकर आँसू बहाता हुआ मरता है। जो दुर्लभ नर काया / मनुष्य देह मिली है उसे थोड़े से विषयों के सुख के कारण मत गँवा, ऐसा सुअवसर मनुष्य-भव फिर नहीं मिलेगा अतः प्रमाद की नींद में मत सो । जो
/ बुद्धिमान लोग हैं वे तो इस अवसर में अर्थात् मनुष्य जन्म पाकर धर्मरूपी कल्पवृक्ष को सींचते हैं और यदि तू अधर्म (पाप) के विषवृक्ष को बोता है तो तेरे समान अभागा दूसरा कौन होगा? जगत में जितने दुःखदायक रसविहीन फल हैं, वे पाप कर्म के ही फल हैं। भूधरदास कहते हैं कि यह जानकर भी तू मूर्ख अर्थात् भोंदू क्यों हो रहा है?
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भूधर भजन सौरभ
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